Wednesday 3 July 2013

बोझ



दो दिनों की  मूसलाधार बारिश ने गंगा को अपने पूरे यौवन पर ला दिया था ।  जोशीली लहरें तट को काट कर बहा ले जाना चाहती थीं । कच्चे तट तो कट कर पता नहीं कब के बह गए थे ये पक्का वाला तट भी लहरों की भेंट चढ़ने वाला था।  उसी तट पर एक स्त्री जिसकी बड़ी बड़ी हिरनी जैसी आँखें, , छरहरी काया, गौर वर्ण व अधपके लंबे बाल जिन्हे बड़ी बेतरतीबी से गोलाकार जूड़ा जैसा बांध रखा था वो देखने मे काफी सुंदर थी, गंगा के किनारे लगे पीपल के नीचे सिकुड़ी सी बैठी थी और एकटक गंगा की लहरों को निहार रही थी । बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसी ही तेज बारिश मे वो सुबह से उसी जगह बैठी थी मानो कोई मूरत हो। कई बार दूर से ही लोगों ने उसे आवाज भी दी ,”बहन इधर आ जाओ छाया मे बैठ लो क्यों वहाँ भीग रही हो ।“ पर वह वह तो जैसे निशब्द हो गई थी और उसे अपने आसपास न कुछ दिखता था न कोई आवाज ही सुनाई देती थी । आखिर हार कर लोगों ने कुछ कहना ही बंद कर दिया । पूर दिन हो गया सुबह से सांझ हो गई अब अंधेरा गहराने लगा था । एक मजबूत हाथ ने लगभग घसीटते हुए उसको वहाँ से हटाया । और अंदर टीन की शेड मे लाकर बैठा दिया। चुपचाप वह वहाँ एक कोने मे जाकर बैठ गई । जिस हाथ ने उसे बारिश से बचाया वही हाथ उसने अपने सिर पर महसूस किया । उस स्त्री ने अपना घुटनो मे छुपा हुआ चेहरा उठाया और उस ओर देखने लगी । उसके सामने एक बुजुर्ग जिनकी  सलीके से ऐंठी हुई बड़ी बड़ी मूँछें, रौबीला चेहरा लंबा चौड़ा कद  झक़ सफ़ेद कुर्ता धोती पहने खड़े थे । उन्होने अपनी रौबदार आवाज मे पूंछा ,” बेटी क्या बात है? यों इस तरह तुम बारिश मे क्यों भीग रही हो लोग कह रहे थे कि तुम सुबह से यहाँ बैठी हो, कब आई किसी ने नहीं देखा ।”
वह मानो कुछ सुन ही नहीं रही थी उसका दिमाग चेतना शून्य हो गया था , निस्पंदित सी वह बैठी रही । उन बुजुर्गवार ने फिर अपना प्रश्न दोहराया । कोई उत्तर न मिला । वे वहीं उसके पास फर्श पर ही बैठ गए । उन्होने फिर से प्रश्न किया ,” बेटी क्या तुम मुझे अपना कष्ट बताना चाहोगी शायद मै तुम्हारे किसी काम आ सकूँ ।” वह उसी तरह बैठी रही, कुछ कहने को होंठ थोड़ा हिले परंतु काँप कर रह गए । वह बोल न सकी उसकी आँखों से आँसू बह निकले । वहाँ खड़े लोग कानाफूसी करने लगे लगता है बड़े दुःख की मारी है तभी अपना दुःख किसी से बता नहीं पा रही है कोई कहता कि लगता है घर से निकाल दी गई है। वे बुजुर्ग बड़े दयावान थे मनोहर लाल नाम था उनका , वे शहर मे एक गैर सरकारी स्वैच्छिक संस्था चलाते थे । उनकी संस्था का नाम देव सहायता आश्रम था जिसका संचालन उनकी पत्नी प्रभावती जी किया करती थी । उसमे कई बच्चे, बूढ़े और महिलाएँ भी रहती थी। लोग कहते थे कि देव उनके बेटे का नाम था इसी कारण मनोहर लाल जी ने अपनी संस्था का नाम देव सहायता आश्रम रखा है। वहाँ हर मुसीबत के मारे को पनाह मिलती है। प्रभावती जी बड़े स्नेह से सबको रखतीं मानो वे सब उनके अपने हों ।
किसी तरह मनोहर लाल जी ने उस स्त्री से उसका नाम पूछा । उसने अपना नाम ललिता बताया । मनोहर लाल जी कुछ आश्वस्त हुये कि उस महिला ने कुछ बोला तो सही । फिर उन्होने उसके परिवार के बारे मे और वह कहाँ की है, जानकारी चाही ताकि उसे उसके घर पहुंचा दिया जाय । परंतु परिवार के विषय मे पूंछते ही वह बेजार होकर रोने लगी । मनोहर लाल जी घबरा गए , “ ऐसा क्या कह दिया ये इस तरह रोने लगी ।” उसको हिम्मत बँधाते हुए वे बोले, “बेटी रोओ नहीं, चलो हमारे आश्रम चलो वहाँ पहले कपड़े बदल लेना कुछ खा पी लेना फिर बताना। तुम्हें रहने की जगह मिल जाएगी।” फिर उन्होने उसका हाथ पकड़ कर उठाया और पास ही बने अपने आश्रम मे ले गए । आश्रम पहुँच कर अपनी पत्नी से बोले , “ प्रभा जी लीजिये एक और बेटी लाया हूँ आपके लिए इसका नाम ललिता है और ये तब तक यही रहेगी जब तक इसका घर बार नहीं मिल जाता ।” प्रभावती जी ने मुस्कुरा कर उसका स्वागत किया , “ आओ बेटी बैठो” और उसे पहनने के लिए कुछ कपड़े दिये स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं, “आज हमारे घर एक और बेटी आई है। बेटी तुम अब अपनी माँ के पास हो अब तुम्हें दुःखी होने जरूरत नहीं है । ललिता फिर रोने लगी उसे बार बार अपनी बेटी याद आ रही थी। वह वहीं पल्लू मुंह मे ठूंस कर बैठ गई ताकि रोने की आवाज किसी को न सुनाई दे। प्रभावती जी ने उसे संभाला और ममता भरे शब्दों मे फिर बोली, “ लगता है कोई बहुत बड़ा दुःख है तुम्हारे मन मे क्या तुम अपने बच्चों को याद कर रही हो? कुछ बताना चाहोगी ?” वह चुप ही रही । प्रभावती जी ने अपनी सहायिका जेनी  को बोला , “जेनी , ललिता के खाने पीने की व्यवस्था करो । और उसे अपने साथ कमरे मे ले जाओ सुबह इससे बात करेंगे । अभी शायद इसका मन ठीक नहीं है ।” जेनी उनकी सहायिका थी वो भी मुसीबत कि मारी थी जिसे अपने आश्रम लाकर मनोहर लाल व प्रभावती ने पनाह दी थी ।
जेनी ने ललिता को कमरे मे ले जाकर बोला , “ ललिता ये मेरा कमरा है और अब से ये तुम्हारा भी है अभी तक मै यहाँ अकेली रहती थी । इस बिस्तर पर मै सोती हूँ और ये बिस्तर तुम्हारा है । तुम यहाँ बैठो मै खाने के लिए लेकर आती हूँ।” इतना कहकर वह मुड़ने लगी तभी ललिता ने उसका हाथ पकड़ लिया और सिर हिलाते हुए इशारा किया कि उसे भोजन नहीं चाहिए । जेनी बोली , “कुछ तो खाना ही पड़ेगा वरना बाबू जी व माता जी नाराज हो जाएंगे फिर वे भी नहीं खाएँगे ।” उस आश्रम मे सभी बच्चे मनोहर लाल जी को बाबू जी और प्रभावती जी को  माता जी बुलाते थे । उनका ही ऐसा आदेश था कि सभी बच्चे चाहे बड़े हो या छोटे वे उन लोगों को माता जी व बाबू जी कहें । अपने इकलौते पुत्र को खोकर उन्होने हिम्मत खो दी थी  उन्होने जीवन त्यागने का मन बना लिया था एक बच्चे ने उन्हे जीवन का पाठ पढ़ाया । उसकी मासूम सी बातों ने उनका हृदय परिवर्तन कर दिया था। उसने कहा , “ मुझे देखो मै तो अकेला हूँ मेरे माता पिता, बहन , दादी बाबा सब थे,  जलजले मे सब बह गए । मै ही अकेला बचा । भगवान ने मुझे छोड़ दिया था तीन वर्ष से मै यहीं हूँ लोगो की सेवा करता हूँ कभी खाने को मिल जाता है कभी पैसे भी मिल जाते है , जो पैसे मिल जाते है उन्हे इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि अपनी पढ़ाई शुरू कर सकूँ ।” उसकी बातों ने उन दोनों को हिम्मत और नया जीवन जीने की  प्रेरणा दी , कि क्यों न वे एक ऐसा आश्रम बनाएँ जिसमे इस बच्चे की तरह मुसीबत के मारे लोगों को पनाह और स्नेह मिले । उनका समय भी कट जाया करेगा और वे अपना प्यार व स्नेह उन सब मे बाँट सकते हैं जिन लोगों को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है । उनके पास पैसा था घर को ही आश्रम बना लिया । सबसे पहला सदस्य वही बालक था। उसको उन्होने पढ़ाया लिखाया वो बंगलौर मे अच्छी कंपनी मे काम करने लगा  उसका ब्याह भी उन दोनों ने ही किया । उस बालक मे वे अपने बेटे देव की छवि देखा करते थे । बार बार कहते , “ ये मेरा देव ही है जो वापस हमारे पास लौट आया है ।” वह भी कहता , “पिताजी आप और माता जी नहीं होते तो मुझे नया जीवन नही मिलता । मै इस मुकाम तक नहीं पहुंचता ।”
ललिता को उस आश्रम आए दो दिन हो गए पर न वो किसी बोलती न ही किसी काम मे रुचि दिखाती। प्रभावती जी ने सोचा ऐसे कब तक चलेगा इस बच्ची से उसके घर बार के विषय मे जानना ही होगा । पता नहीं कहाँ से आयी है क्या दुःख है क्यों बच्चों की बात करते ही रो पड़ती है आखिर ऐसा क्या हुआ है उसके साथ , क्यो नहीं बताना चाहती वो ?
प्रभावती जी ने कमरे मे उसे बुला भेजा । वह आई और चुपचाप बैठ गई । माता जी ने कहना शुरू किया , “ बेटी ललिता कुछ अपने और अपने परिवार के विषय मे बताना चाहोगी ? बेझिझक होकर बताओ हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचाने मे मदद करेंगे ।” वह सोचने लगी क्या बताए वह और किस घर जाएगी जब उसके पास रहने का कोई ठिकाना ही नहीं है । वह चुपचाप ही बैठी रही कुछ न बोली । जेनी पास ही खड़ी थी उसने कहा, “ललिता, माता जी की बात का उत्तर दो ।” ललिता ने सोचा, “मन की व्यथा कह देती हूँ नहीं तो यों ही कुढ़ती रहूँगी शायद ये लोग मेरी बेटी को ढूँढने मे मेरी मदद कर दें ।”  
उसने लंबी सांस भरी और कहने लगी , “ माता जी मेरा भी भरा पूरा परिवार था पति रेलवे मे थे और दिल्ली मे तैनात थे ,  दो बच्चे थे एक बेटा और एक बेटी , बड़ी अच्छी तरह हमारी गृहस्थी चल रही थी, पहले मै गाँव मे सास के साथ रहती थी फिर सास ने मुझे पति के साथ शहर भेज दिया कि बेटे को खाने पीने की तकलीफ होती होगी। मुझे भी शहर आकर अच्छा लगा हालांकि शहर मे हर चीज मंहगी थी फिर भी हम उनकी छोटी तंख्वाह मे भी पूरा कर ही लेते। उनका सपना था बच्चे खूब पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी मे लग जाएँ उन्होने बेटे और बेटी मे कोई अंतर नहीं किया। वो कहते हम कमाते क्यों हैं ताकि हमारे बच्चे अच्छे ओहदों पर काम करें । एक दिन सास का देहांत हो गया अब गाँव मे अपना कहने को कोई न था।” माता जी ने पूछा, “क्या तुम्हारे और कोई रिश्तेदार नहीं हैं कोई ननद , देवर या जेठ ।” थोड़ी देर रुकी आंखो से सैलाब बह निकला फिर बोली , “ दो ननद है उनका ब्याह हो गया है वो अपनी ससुराल मे है, हमारे पति इकलौते थे मेरी सुंदरता के कारण वे मुझे कहीं अकेले न जाने देते, बाजार हाट काम वो खुद ही करते , एक दिन अचानक तूफान आया सरोजनी नगर मार्केट मे कुछ समान लेने गए थे वहाँ आतंकियों ने बम बिस्फोट कर दिया  बहुत लोग मारे गए मेरे पति भी ........ ” कह कर वह फूट कर रो पड़ी । माता जी ने उसे हिम्मत बंधाई सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं , “ मत रो बेटी जो हुआ बड़ा बुरा था, उस समय तुम्हारे बच्चे कितने बड़े थे ।” “बेटी बारह साल की और बेटा आठ का” उसने उत्तर दिया । मै पढ़ी लिखी भी नहीं थी जो मुझे नौकरी मिल जाती मैने वहीं आसपास के घरों मे काम तलाशना शुरू किया किसी तरह  दो घरों मे काम मिला । आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया था न उससे घर का खर्च निकाल पाता, न किराया और न ही बच्चो की फीस पूरी हो पा रही थी। दिन ब दिन हालत बदतर होते जा रहे थे । किराया न दे पाने के कारण मालिक ने घर से निकाल दिया अब और समस्या खड़ी हो गई । कहाँ जाऊँ किससे मदद की गुहार लगाउ समझ न आ रहा था ।” माता जी ने फिर कहा , “ तुम अपनी ननदों के घर नहीं गई या उन्होने सहारा नहीं दिया ।” उसने उत्तर दिया , “ माता जी वे सब अपने घर द्वार वाली है उन्होने थोड़ी बहुत मदद की लेकिन पूरी ज़िंदगी की ज़िम्मेदारी कौन उठाता है और ऐसे समय मे सब बेगाने हो जाते है चाहे कोई भी हो ।  अपनी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी मुझे उठानी थी मै दिल्ली छोड़ कर मुरादाबाद बच्चों के साथ आ गई वहाँ मेरे भाई थे सोचा भाई थोड़ी सहायता कर देंगे तो कोई छोटा मोटा काम कर लूँगी बड़े भैया ने कहा “कलकत्ता चली जाओ वहाँ मेरे एक मित्र हैं उनके घर मे खाना बनाने से लेकर सारा काम है और वो रुपये भी दो हजार देंगे ।” उन्होने टिकट का इंतजाम कर दिया मैंने कहा, “भैया यदि कुछ दिन बेटी को आप अपने पास रख लेते तो ... क्योंकि जमाना कैसा है आप तो जानते ही हो , भाभी ने कहा , “नहीं भाई हमारे घर मे भी बड़े बड़े लड़के हैं और हम किसी की बेटी ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकते कोई उंच नीच हो गई तो जवाब कौन देगा न बाबा न।”  मै अपने दोनों बच्चों के साथ कलकत्ता के लिए चल दी वहाँ पहुच कर जो नंबर भैया ने दिया था वहाँ फोन किया उन्होने बताया कैसे मै उनके घर पहुँच सकती हूँ । वहाँ पर पता चला कि उनकी पत्नी गर्भवती थी उन्हे फुल टाइम बाई चाहिए थी, मैंने कहा मेरे दो छोटे बच्चे है पूरा समय तो नहीं दे पाऊँगी।” उन्होने कहा, सोच लो फिर आ जाना ।” “मैने एक झोपड़ पट्टी मे शरण ली । वहाँ लोग काफी अच्छे थे उन्होने कहा वे बच्चे देख लिया करेंगे । मैंने काम शुरू कर दिया । अब बच्चे स्कूल जाने की जिद करने लगे । बेटी तो समझदार थी वह बेटे को भी समझाती , एक दिन उसने कहा, “ माँ बिट्टू का एडमिशन करवा दो मेरा बाद मे करा देना।” लोगो ने समझाया बेटी सही कह रही है बेटा तो जीवन का सहारा होता है और बेटी बोझ होती है । मैंने कहा , “ नहीं दोनों बराबर पढ़ेंगे उनके पिता ने कभी भी दोनों मे भेदभाव नहीं किया , जब एडमिशन कराने गई तो फीस की रकम सुन कर चकरा गई सोचा चलो अभी बिट्टू का नाम लिखा दूँ इसका पढना ज्यादा जरूरी है । यहाँ मैंने पहली गलती की । आमदनी न बढ़ी और न मै बेटी की पढ़ाई शुरू करा पाई। बस्ती महिलाए कहती इसे भी काम पर लगा ले कुछ अधिक पैसे मिलेंगे जिससे तेरा बेटा तो अच्छा पढ़ लिख जाएगा । मुझे भी बात जंच गई उसे काम पर लगाने के लिए साथ ले गई यहाँ मैंने दूसरी गलती की , मालिक ने उसको काम पर रखने साफ इंकार कर दिया क्योंकि वहाँ बच्चे काम पर लगाने पर जुर्माना पड़ता था । मुझसे गृहस्थी का खर्च उठाए नही उठ रहा था । बेटी भी बड़ी होने लगी थी सारा दिन घर पर खाली रहती घर के काम- काज से फुर्सत होते ही वह वह कुछ काम की तलाश मे निकल पड़ती परंतु उसे कहीं काम न मिलता । मेरा दिल रो उठता कि कहाँ मेरी बेटी पढ़ लिख कर डाक्टर बनाना चाहती थी कहाँ बेचारी दर बदर की ठोकरे खाती फिर रही है, एक दिन वह रात तक वापस न आयी, पूरी रात आँखों मे कटी सुबह होते ही मै मालिक के पास गई , “ साहब मेरी बेटी कल से घर नहीं आयी , साहब ढूँढने मे कुछ मदद कर दीजिये । उन्होने पुलिस मे रिपोर्ट करा दी उसका फोटो भी जमा हो गया । झोपड़ पट्टी वाले सबने कहा, “अच्छ ही है तुम्हारा बोझ खत्म हो गया । रिपोर्ट तो लिखा ही दी है लड़की को पुलिस ढूंढ ही लाएगी न भी मिली तो क्या फर्क पड़ता है बड़ी हो रही थी कोई ऊंच नीच हो जाती कलंक लगता सो अलग तू बेचारी विधवा कहाँ जाती और फिर चल मान ले कि कुछ नहीं होता तो उसकी शादी का खर्च कहाँ से लाती ।” मन भी बड़ा पापी होता है माता जी ये पाप कर बैठा , “सोचा कि बेटा तो साथ है ही, सही भी है बेटी शादी का खर्च कहाँ से लाती ।” मन के पाप के कारण सोच तो लिया पर बेटी का मासूम चेहरा उसकी भोली भाली आंखो ने कभी चैन न लेने दिया । बेटा बड़ा हो गया था परदेस चला गया नौकरी करने वहीं कोई लड़की पसंद आ गई उसने शादी भी कर ली बाद मे खबर  दी । मै जिन मालिक के घर काम करती थी उनके घर अब मै घर के सदस्य की तरह हो गई थी उन्होने हार नहीं मानी उनकी बड़ी कृपा रही मुझ पर , वो पुलिस से पूंछ आया करते थे कि पुलिस की क्या कोशिश चल रही है इतना समय हो गया है एक लड़की नहीं ढूंढ पाये। उन्होने ऊपर तक बात की । एक दिन खबर आई कि जिस लड़की का फोटो उनके पास है उससे मिलती जुलती लड़की को बनारस मे देखा गया है । मालिक के साथ मै व पुलिस के कुछ आदमी भी बनारस आये । कई दिन तक खोजने के बाद भी जब कोई हल न निकला तो मैंने मालिक के पाँव पकड़ लिए । मालिक अब आप जाओ वहाँ मालकिन भी अकेली हैं मै यहाँ रह कर खुद ही ढूंढ लूँगी और तब से मै यहीं हूँ । बेटी भी अब बड़ी हो गई होगी पता नहीं कहाँ होगी ।”
माता जी ने कहा , “ क्या तुम्हारे पास उसका कोई फोटो है ।” वह बोली, “ है तो वही बारह साल वाला” और कमर मे खुसा हुआ मुड़ा तुड़ा सा फोटो पकड़ा दिया । उन्होने फोटो मनोहर लाल जी को दिया , “ क्या हम इस फोटो से बच्ची को ढूंढ पाएंगे ।” मनोहर लाल जी बोले , “ प्रयास तो कर ही सकते है ।” उन्होने उस फोटो के पोस्टर बनवाए और नीचे लिखवा दिया ,ये फोटो इस बच्ची के बचपन का है जो भी इस बच्ची को जानता हो या कभी मिला हो वह इस पते पर संपर्क करे,  नीचे अपना पता दे दिया । पोस्टर पूरे शहर की दीवारों पर चस्पा करवा दिये । 
एक दिन एक सुंदर सी लड़की एक वृदधा के साथ आयी उसने अपना नाम सुलक्षणा बताया । बोली अपने बचपन की फोटो दीवारों पर देख मुझे हैरानी हुई कि ये फोटो आपको कहाँ से मिली । प्रभावती जी ने पूछा , “ये तुम्हारे साथ कौन है? वह बोली- “ मेरी माँ हैं। वे हैरान सी उसका मुंह देखने लगीं , “ ये इसकी माँ है तो ललिता इसकी कौन हैं ?” उन्होने फिर कहा , “ बेटी तुम कहीं बाहर से आई हो ।” वह बोली , जी नहीं जब से होश संभाला है इनको ही अपनी माँ के रूप मे देखा है ये न होती तो मै भी न होती ।” फिर वे उस वृदधा की ओर मुखातिब हुईं , “ बहन जी आप इस बच्ची की सगी माँ है । वे मुस्कराते हुए बोलीं , “ सगा और सौतेला कुछ भी नहीं होता बहन मै ही इसकी माँ हूँ और ये मेरी ही बेटी है ।”     
प्रभावती जी ने उनको सुलक्षणा के बचपन का फोटो दिखाया और पूंछा की ये फोटो कहाँ की है बता सकती हैं आप । तब उस वृदधा ने बेटी को बाहर भेज दिया और कहने लगीं  , “ एक दिन मै किसी काम से कलकत्ता गई थी वहाँ ये लड़की लोगों से भीख की तरह काम मांग रही थी । उस समय मै जल्दी मे थी निकल गई वापस लौटी तो ये लड़की कड़ी धूप मे शायद चक्कर खा कर गिर गई होगी सड़क पर पड़ी थी लोगों ने घेर रखा था परंतु उसे उठा कर इसके घर पंहुचाने कि जहमत कोई नहीं उठाना चाहता था । मैंने गाड़ी रोकी उन लोगों से मेरी इस बात को लेकर झड़प भी हुई किन्तु सभी मुंह फेर कर चल दिये । मै इस बच्ची को हास्पिटल ले गयी वहाँ डाक्टर्स ने कहा एक दिन रखना पड़ेगा क्योकि बच्ची काफी कमजोर है, लगता है कई दिनो से ठीक से खाना नहीं खाया, ग्लूकोज चढाना पड़ेगा । मैंने कहा ठीक है जो भी करना है जल्दी कीजिये। इसे इसके घर छोड़ दूँ फिर मै वापस बनारस लौटूगी । दूसरे दिन बच्ची को होश आया माँ को ढूँढने लगी। तब मैंने बताया कल तुम सड़क पर बेहोश मिली थीं । तुम्हे मै ही यहाँ लेकर आयी हूँ । तुम अपने घर का पता बताओ तुम्हें छोड़ दूँ फिर मै वापस जाऊं।” वह बोली , “ माँ जी आप मुझे किसी काम पे रख लो मै पढ़ना चाहती हूँ मेरी माँ काम कर के जो पैसे लाती है उससे घर का खर्च और बिट्टू की पढ़ाई ही बड़ी मुश्किल से हो पाती है ।” मैंने कहा , “ पर मै तो यहाँ नहीं रहती मै बनारस से आई हूँ । वह मायूस हो गई । मुझे लगा वह सच मे पढ़ना चाहती है मै उसे अपने साथ ले आई और अब वह मेरी बेटी है, उसकी हर खुशी मेरी खुशी है । क्योकि मेरे अपने कोई बच्चे नहीं है। इसने मेरे जीवन की कमी को पूरा किया है।”
प्रभावती जी ने कहा , “ लेकिन इसकी अपनी माँ भी इसे खोजती हुई यहाँ आई है कल उसे मेरे पति गंगा के किनारे से लेकर आए है । अभी बुलवा देती हूँ । ” उन्होने टेबल पर रखी घंटी बजाई । जेनी अंदर आई ,  “जेनी जाओ जरा ललिता को बुला लाओ ,” वह बोली , “जी माता जी ।” और ललिता को बुलाने चली गई ।
सफेद साड़ी मे लिपटी ललिता वहाँ आकर खड़ी हो गई । माता जी ने कहा , “ यह तुमसे मिलना चाहती है ।” “ जी बताइये” बोल कर चुपचाप खड़ी हो गई । उस वृद्ध स्त्री ने उसकी ओर देखा वह अब भी काफी सुंदर थी । वे मुस्करा कर बोली, “ ललिता मेरा नाम कमला कुलपति है मै यहीं की रहने वाली हूँ और गर्ल्स डिग्री कालेज मे प्रोफेसर हूँ एक बेटी भी है मेरी , तुम मिलना चाहोगी।” ललिता ने सोचा मुझे क्या करना है , मुझे तो मेरी बेटी मिल जाए बस । तब तक सुलक्षणा अंदर आई । वह अपनी माँ को पहचान गई लेकिन ललिता उसे नहीं पहचान पाई , वह बड़ी हो गई थी और उसकी बचपन वाली बेटी से बिलकुल अलग थी । सुलक्षणा दौड़ कर माँ के गले से लिपट गई , “माँ तुमने मुझे ढूंढा नहीं ।” बहुत ढूंढा मेरी बच्ची , फिर जब नहीं मिली तो मन को समझा लिया । क्या कहूँ तुझे कि तेरी अपनी माँ ने ही तुझे बोझ मान लिया था मन का पाप था , मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची।” सुलक्षणा ने कहा , “ नहीं माँ नहीं ऐसा मत कहो, तुम्हें मै एक दूसरी माँ से मिलाती हूँ जिन्होने मेरी मदद की और मुझे पढ़ाया लिखाया अपने साथ यहाँ ले आई मेरे लिए तो वे किसी फरिश्ते से कम नहीं है ।” कहकर वह कमला जी की ओर मुड़ी , “ माँ देखिये ये मेरी माँ हैं , जिन्होने मुझे जन्म दिया है । मै कितनी खुश नसीब हूँ मेरी दो माँए  हैं ।” कमला जी ने कहा , ललिता तुम भी हमारे साथ चलो मै तो एकदम अकेली रहती थी तुम्हारी बेटी ने मेरे घर को पूरा किया मुझे माँ का सम्मान दिया और अब तुम्हारे रूप मे एक बहन भी मिल जाएगी ।” ललिता ने सर झुका लिया कुछ बोल न पाई ,आँसू निकल पड़े । उनके प्यार  से उसका दिल भर आया । सुलक्षणा ने कहा, “चलो माँ हम सब साथ रहेंगे।” वह बोली , “ कहाँ ले जाएगी बेटी मुझ बोझ को , मुझे यहीं रहने दे तू इनके साथ खुशी से रह ।” सुलक्षणा ने कहा , “माँ तुम ये क्या कह रही हो, भला माँ भी कभी किसी बच्चे के लिए बोझ होती है । नहीं माँ अब तुम्हें मेरे साथ ही चलना पड़ेगा अब मै भी नौकरी करने लगी हूँ । मुझे सेवा का अवसर न दोगी ।” ललिता सोचने लगी कि मै भी कितनी अधम हूँ जिसने बेटी को बोझ समझने की गलती की । जबकि सच तो ये है कि बेटियाँ ही सच्चा सहारा होती हैं ।” ललिता सभी को कृतज्ञता से प्रणाम कर उन दोनों के साथ चल दी ।      

Monday 3 June 2013

चुल्लू भर पानी ( लघु कथा )

चिलचिलाती धूप मे भी तेरह –चौदह वर्षीय किशोर सिर पर मलबे से भरी टोकरी उठाए बहुमंज़िली इमारत से नीचे उतर रहा था । उतरते उतरते उसे चक्कर आने लगा उसने सुबह से कुछ खाया नहीं था । उसके घर मे कोई बनाने वाला नहीं था , उसकी माँ बहुत बीमार थी उसके लिए दवा का बंदोबस्त जो करना था उसी के वास्ते वह काम करने आया था । चक्कर आने पर वह वहीं सीढियों पर दीवाल से सिर टिका कर बैठ गया । ठेकेदार उधर से चला आ रहा था उसे बैठे देख गरजा – “ अबे ओ! कामचोर कहीं के ! जरा सा काम किया नहीं कि बैठ गए मुंह लटका कर ।“ वह धीरे से बोला –“साहब दो घूंट पानी” फिर से वहीं ढेर हो गया । ठेकेदार ने जोर की लात उसके सिर पर मारी, वह लड़खड़ाता हुआ सीढ़ियों से नीचे जा गिरा । उसके सिर व मुंह से खून निकल पड़ा था । ठेकेदार गुर्राया -“जा मर चुल्लू भर पानी मे , एक ढेला भी नहीं मिलेगा तुझे ।“ वह धीरे से बोला –“ साहब दो घूंट पीने को नहीं है , मरने को चुल्लू भर कहाँ से दोगे ?” सभी उसका मुंह ताकते रह गए । कितनी सटीक चोट मारी थी किशोर ने । 


Thursday 30 May 2013

वो मूक नहीं



राम चरण डंडे से लगातार अपनी गाय को पीट रहा था और गाय थी कि टस से मस नहीं हो रही थी वो अपनी जगह ही खड़ी थी, उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसका बछड़ा तेजी से कूद रहा था मानो कह रहा हो मत मारो मेरी माँ को ऐ दुष्ट इंसान । एक बार मुझे इंसान बनने दे सारी कसर पूरी कर कर लूँगा ।”
पास खड़े राम चरण के माता पिता ज़ोर ज़ोर चिल्लाये जा रहे थे ,”का गइया के मारि ही डरिहै का रे।
“हाँ अम्मा आज एहिका मारि डरिहौ ।” खीझते हुये राम चरण बोला । उसको सुबह साहब के बंगले पर दूध लेकर जाना होता था। थोड़ी भी देर होने पर साहब बिगड़ जाते, “कामचोर कहीं के! तुम सब होते ही गंदी नाली के कीड़े हो । तुम्हें समय पर दूध लाने के लिए और अपनी गायों की देखभाल के लिए रखा है और इन साहब को देखो आए दिन बच्चे बिना दूध पिये ही स्कूल चले जाते है ।”
राम चरण को साहब ने अपने फार्म हाउस की देखभाल के लिए रखा था , एक दिन मेम साहिबा के कहने पर  – “अपना फार्म हाउस है और ये वहाँ रहता ही है क्यों न हम कुछ गायें वहाँ रख दें ये गाँव का लड़का है अच्छी तरह देखभाल कर लेगा, और हमारे बच्चों को ताजा घर का दूध भी मिल जाएगा।” साहब को मेम साहिबा की बात जँच गई और उन्होने दो जर्सी गायें रख दीं । गाये खूब दूध देती थी शुरू शुरू मे साहब खुद आए ताकि देख सकें गायें दूध कितना देती हैं । उन्होने राम चरण से पूछा  , “रामू तुम्हारे परिवार मे कौन कौन हैं?” रामू बोला ,’साहब हमरे घर मा माई, बापू, जोरू और एक बिटिया है ।“ साहब बोले ,’ क्यों न अपने परिवार को यहाँ ले आओ तुम्हारा काम भी हल्का हो जाएगा, और आए दिन तुम्हें छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ेगी ।“  राम चरण को साहब की बात जंच गयी और वह खुशी खुशी अपने परिवार को ले आया । उसके पिता गोकरन गायों की खूब सेवा करते मानों वे उनकी अपनी ही गायें हों । माँ जनक दुलारी फार्म हाउस मे झाड़ू बुहारू कर दिया करती थीं, पत्नी ने घर संभाल लिया था । सब कुछ सुचारु रूप से चलने लगा । वह सुबह तड़के  उठकर गायों का दूध निकालता और छः बजने से पहले पहुँच जाता साहब के बंगले पर । साहब की बड़ी सी बेकरी थी कई लोग उसमे काम करते थे साहब ने उसे वही काम पर लगा दिया । उसका काम था फैक्ट्री मे निर्मित चीजों को दुकान तक पंहुचाना । रोज वह उनकी सभी दुकानों पर सामान डिलीवर करता था और हिसाब लेकर साहब तक पहुचा देता। वह बड़ी ईमानदारी से अपना करता था। पर गरीब की दुनिया मे हमेशा सब कुछ ठीक नहीं चलता। एक हिस्सेदार ने कई दिनो से पैसे नहीं दिये थे। उसने साहब से कहा,” जुबेर पैसे नहीं दे रहा है.” साहब ने कहा ,” जुबेर को तुरंत बुला लाओ अभी पैसा वसूलता हूँ ।” जुबेर को साहब की अदालत मे हाजिर किया गया। साहब काफी गुस्से मे थे बिफर पड़े , “शाम तक सारा पैसा जमा करा नहीं तो कल से तुझे दुकान से छुट्टी, तू जितने भी गोरख धंधे कर रहा है न, सब मुझे पता है कल तू दुकान मे कदम तभी रखेगा जब पूरा पैसा जमा कर देगा ।” इसके साथ उसे वहाँ से भगा दिया । जुबेर मन ही मन भुनभुनाता हुआ चल दिया । साहब ने रामचरण को बुलाया और दुकान की ज़िम्मेदारी उसे सौंप दी । जुबेर यह सब देख खिसिया गया उसने मन ही मन उसको सबक सिखाने की सोंची ।
रात को छुट्टी के बाद जब राम चरण घर को चला तब थोड़ी ही दूर पर दो लड़कों के साथ जुबेर ने उसे घेर लिया । जुबेर बोला, तोड़ दो इसके हाथ पाँव बहुत चमचागीरी करता है स्साला! अब देखता हूँ कैसे जाएगा दुकान ।“ और सभी ने उसको पीटना शुरू कर दिया। बेहिसाब पीटने से रामचरण की कई हड्डियाँ टूट गई और सिर पर गहरा घाव हो गया अधिक खून बह जाने से वह बेहोश हो गया ।  पूरी रात बीत गई घर मे पत्नी और माँ बापू इंतजार के  करते करते सुबह हो गई । परंतु राम चरण न आया । गोकरन खुद ही दूध लेकर साहब के बंगले गया और सारी बात साहब को बताई । साहब ने उसे खोजने के लिए अपने आदमी भेजे और पुलिस को भी  इत्तिला कर दी उसकी खोज जल्द ही की जा सके । पूरा दिन खोजने के बाद पुलिस को झड़ियों मे एक लावारिस लाश मिली । उसे देखते ही गोकरन गश खाकर गिर पड़े । वह कोई और नहीं रामचरण ही था । गोकरन फार्म हाउस पर बेटे का शव लेकर पहुंचे । उससे लिपट कर माँ अपनी सुध बुध खो बैठी , पत्नी का बुरा हाल था वह बेचारी कभी अपनी चूड़ियों से भरी कलाई को देखती जिसे अभी परसों ही पहन कर आई थी जिसे राम चरण ने अनायास ही चूमते हुये कहा था ,” कईसी नीकी लागि रही हैं” , कभी अपनी दो वर्ष की बेटी को देखती  जिसके लिए न जाने कितने सपने बुने थे, हाय ! कैसे जीवन जिएगी अब।
कोने मे खड़ी गाय के आँख से आँसू उसी तरह बह रहे थे जैसे एक दिन पहले बह रहे थे बार बार रँभाती वो कहती ,”मै मूक नहीं।” उसका बछड़ा उसी तरह कूद रहा था जैसे एक दिन पहले । उसकी भाषा किसी की समझ से बाहर थी ।           

Monday 20 May 2013

तुम सा गर हो साथी


रौनक दौड़ता हुआ आया और माँ को पकड़ कर गोल गोल घूमता हुआ बोला ,“माँ मै पास हो गया ! माँ तेरा बेटा आई ए एस बन गया । माँ आज पापा जरूर खुश हो जाएंगे वो हमेशा मुझसे नाराज रहते है , कि मै नालायक हूँ कुछ कर नहीं सकता ।“
“हाँ हाँ बेटा जरूर , तुमने आज खुशी ही ऐसी दी है ।“ सुमन जी खुशी से लरजते हुए बोलीं। “ बेटा तुमने आज हमारा जीवन सफल कर दिया ।“ उनकी आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े। आज उनका सपना साकार हो गया था । बस उन्होने यही चाहा था कि रौनक आई ए एस आफिसर बन जाय । रौनक सुमन और निखिलेश का इकलौता बेटा था । निखिलेश मल्टीनेशनल कंपनी मे एक्ज़ीक्यूटिव थे और अधिक तर विदेशों मे रहते थे इसलिए घर को समय नहीं दे पाते थे ,पर वो ये जानते थे की सुमन कैसी भी परिस्थिति को बड़ी कुशलता से संभाल लेती है । सुमन भी एक बालिका विद्यालय मे प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत थीं । रौनक के बाद उनकी दूसरी संतान नहीं हुई । रौनक पढ़ने मे बहुत तेज था लेकिन साथ ही बहुत शैतान भी  था। अपनी शैतानियों के बीच भी वो पढ़ने का समय निकाल लिया करता था । कक्षा मे हमेशा अव्वल आता था । एक बार अपने फाइनल एक्जाम के समय वो बीमार पड़ गया और परीक्षा नहीं दे पाया , और बहुत रोया , टीचर को उसकी परीक्षा लेनी ही पड़ी । ऐसा ही था वो कभी हार न मानने वाला । अपनी शरारतों के बावजूद अध्यापकों मे लोकप्रिय था ।
 आज उसकी मेहनत रंग लाई थी अपने मम्मी पापा का सपना पूरा किया था । रौनक के मित्र का फोन आ गया वह उसके साथ व्यस्त हो गया । निखिलेश उस समय इंडिया से बाहर थे, सुमन जी ने उन्हे फोन पर सूचना दी ,” सुनिए आज आपके बेटे ने कर दिखाया , आप नाहक ही कोसते रहते थे ।“ निखिलेश जी बोले, “ठीक है आज उसी का नतीजा सामने आया न ।” वे बोली ,”जी अब कब तक आ रहे हैं आप।“ “बस अभी लो ! तुम बस बाहर आकर गेट खोलो" निखिलेश ने चुटकी ली । “ अरे! क्या कह रहे है” सुमन जी अचंभित सी बोलीं । वे बोले, “बाहर आओ भी” सुमन दौड़ती हुई सी गेट की ओर भागी । सचमुच निखिलेश बाहर खड़े थे ।
अंदर आकर ज़ोर से कड़कती हुई आवाज मे बोले,” रौनक, मित्र मंडली से फुर्सत हुई हो तो नीचे आ जाओ ।“ रौनक किसी से फोन पर बात कर रहा था उसके हाथ से फोन छूटते बचा,” अरे पापा ! पापा आ गए।“ भागता हुआ आया। निखिलेश जी बड़ी गहन मुद्रा मे सोफ़े पर बैठे थे । सुमन जी चाय बना रहीं थी और सिर नीचे झुकाये थीं ।
 उसने सोचा ,” मारे गए पापा तो गुस्से मे लग रहे है।”
निखिलेश जी दुबारा बोले,” क्यों बरखुरदार क्या गुल खिलाये इस बार , पास वास हुए कि नहीं।”
खुशी से उछलते हुये रौनक पापा के पास पहुंचा ,” जी पापा इंडिया मे दसवां स्थान है ।“
 “अच्छा बता तो ऐसे रहे हो जैसे पहला स्थान मिला है ,” चेहरे पर आ रही हंसी को रोकते हुए निखिलेश जी बोले। इसी के साथ सुमन जी हंस पड़ीं।
“अब तो पार्टी होनी चाहिए” निखिलेश ने कहा । सुमन जी ने भी स्वीकृति दे दी । पर रौनक बोला ,” पापा !  इफ यू डोंट माइंड , मेरी ज्वाइनिंग के बाद पार्टी कर लेते है प्लीज़।“
 निखिलेश अचंभे से उसको देखने लगे, “ क्या ये हमारा ही रौनक है सुमन ! “
"जी पापा बिलकुल आपका ही रौनक है, बस पार्टी बाद मे दीजिएगा ।“
कुछ समय बाद उसकी ज्वाइनिंग हो गई और निखिलेश जी ने शानदार पार्टी दी । शहर के बड़े और नामी गिरामी लोगों ने शिरकत की ।
 सेठ आलोक नाथ जी शहर के सबसे बड़े वस्त्र व्यापारी थे। उनकी इकलौती बेटी थी शैलजा विदेश मे रह कर डाक्टरी पढ़ रही थी। आलोक नाथ जी ने निखिलेश जी से उसके रिश्ते की बात चलाई । निखिलेश जी को कोई एतराज न था पर उन्होने बेटे की इच्छा जानना जरूरी समझा । उन्होने आलोक नाथजी से कहा,” भाई हमे तो कोई आपत्ति नहीं है पर हम चाहते है कि दोनों बच्चे एक दूसरे को देख ले समझ लें तभी ठीक रहेगा ।"
“ हाँ हाँ !! क्यों नहीं? आज हमारा आपका जमाना थोड़े ही रहा । अगले हफ्ते शैलजा इंडिया आ रही है उसकी पढ़ाई पूरी हो गई है । आप तभी कोई सही मौका देख ये काम करा लीजिये,“ आलोक नाथ जी बोले ।
सुमन जी सोचने लगीं ,” कहीं ऐसा न हो जल्दबाज़ी मे हम कोई गलत निर्णय ले बैठें।“
अगले हफ्ते शैलजा इंडिया आ गई । आलोक नाथ जी ने देखने का कार्यक्रम अपने घर पर ही रखा । शैलजा ने ही अपने घर मे मेहमानों की आवभगत की बागडोर संभाल रखी थी । क्योंकि शैलजा की माँ नहीं थीं । कुछ औपचारिक बातों के बाद निखिलेश जी ने आलोक जी से बोले ,”भाई अब हम बूढ़े बैठ कर बातें करते हैं और बच्चों को अकेले थोड़ी देर एक दूसरे को समझने का मौका दिया जाय ,क्यों आलोक आपका क्या ख्याल है?”
  जी बिलकुल ” आलोक जी ने कहा ।
शैलजा और रौनक बाहर बगीचे मे जाकर बैठ गए । शैलजा ने पूछा ,”आपका अभी अभी प्रशासनिक सेवा मे चयन हुआ है किस शहर मे नियुक्त हुये है ।” रौनक शैलजा के शुद्ध हिन्दी मे बात करने से काफी प्रभावित हुआ बोला ,”कानपुर मे । आपकी हिन्दी तो बहुत अच्छी है ।“
शैलजा ने कहा, “धन्यवाद , हिंदुस्तानी हूँ हिन्दी तो अच्छी होनी ही चाहिए, वैसे भी मै दिखावे की ज़िंदगी और तौर तरीकों को कम पसंद करती हूँ।“
“ओह ! गुड , आपकी पढ़ाई भी अब खत्म हो गयी है आपका क्या इरादा है यहाँ इंडिया मे रहेंगी या फिर वापस लौट जाएंगी“ रौनक ने पूछा ।
शैलजा ने कहना शुरू किया,” मैंने डाक्टरी की पढ़ाई विदेश मे रह कर अधिक धन कमाने के लिए नही की है । मुझे अपने देश मे रह कर उन लोगों के लिए कुछ करना है एक ऐसा उच्चस्तरीय अस्पताल बनाना है जहां हर तबके के लोगों का इलाज हो खास कर उन लोगों का जो किसी कारण वश इलाज के अभाव मे या तो दम तोड़ देते हैं या कई बार ऐसा भी होता है पैसे की कोई कमी नहीं होती लेकिन उचित और उच्चस्तरीय सुविधायें न मिल पाने के कारण भी मरीजों को बचाया नहीं जा पाता है।"
 "बहुत ही अच्छा ख्याल है आपका , इससे काफी लोगों का भला होगा" रौनक प्रभावित होते हुए बोला । शैलजा ने गहरी सांस ली फिर कुछ  सोच कर उसकी अंखे भर आयीं ।
रौनक ने कहा ," कोई बात है आप अगर मुझे बताना चाहे तो बता दें ।"
 शैलजा ने खुद को संयत किया और बोली,"  मुझे आज भी वो दिन याद है जब मेरी माँ मुझे छोड़ कर चली गईं थीं सदा के लिए, उनकी मौत कैंसर से हुई थी। पापा के पास पैसे की कोई कमी नहीं है फिर भी हम माँ को बचा नहीं पाये। उच्च्स्तरीय इलाज के लिए डाक्टर्स ने उन्हे विदेश ले जाने को कहा क्योंकि वहाँ पर उनका इलाज संभव था लेकिन जब तक हम उन्हे ले जा पाते वे ही चल दीं थीं । उनका दर्द उनका छटपटाना जब याद आता है तो मन मे ये इच्छा और बलवती हो जाती है कि इलाज के बिना अब कोई माँ अपने बच्चों से न रूठे । इसलिए मैंने डाक्टरी पढ़ी है और अब यहाँ ही अस्पताल खोलूँगी जिसमे सभी सुविधायें होंगी हर संभव इलाज मुहैया कराया जा सके इस बात का पूरा ख्याल रखा जाएगा ।  जिससे पापा भी खुश रहेगे और मुझे भी संतुष्टि रहेगी कि पापा अकेले नहीं है। इसलिए मै ऐसे लड़के से ही शादी करना चाहती हूँ जो मेरा साथ दे मेरी भावनाओं को समझे । " रौनक शैलजा की बातों से बेहद प्रभावित हुआ पर उसने शैलजा से कुछ कहा नहीं। धीरे से उठा और बोला, "चलिये अब काफी देर हो गई है मां पापा इंतजार कर रहे होंगे।" उसके इस तरह उठ आने को शैलजा ने नकारात्मक उत्तर समझा। अंदर आने पर सुमन जी ने आँखों से इशारे ही इशारे मे पूछ लिया। उसने हाँ मे सिर हिला दिया , खुशी से निखिलेश जी ने आलोक जी को गले लगाया बोले ,"भाई अब तो हम समधी हो गए।" आलोक जी की आँखों मे खुशी के आँसू छलक आए।  रौनक ने शैलजा की ओर देखा शैलजा ने सिर झुका लिया मानो एक दूसरे से कह रहे हो "तुम सा गर हो साथी" ।
                

Wednesday 24 April 2013

एकाकी

 

कौशल्या जी को गुजरे अभी दस दिन भी न हुए थे कि उनके तीनों बच्चों मे उनकी चीजों को लेकर झगड़ा आरंभ हो गया। जैसा कि अधिकतर घरों मे होता है कि घर के स्वामी या स्वामिनी का महाप्रयाण हुआ नहीं कि संपत्ति  का झगडा शुरू। सो यहाँ भी कुछ नया न हो रहा था।
    बड़ी  बहू सबकी चाय लेकर आई और तमकते हुए बोली ," सारा जीवन मैंने सेवा की है और आज जब कुछ मिलने की बारी आई तो मंगते पहले इकट्ठा हो गए, पिता जी मै कुछ नहीं जानती आप मुझे अम्मा के मोटे वाले कंगन और पुरानी वाली तोड़ियाँ दे दो, आखिर मेरे भी एक बेटी है कुछ अम्मा की तरफ से आशीर्वाद ही हो जाएगा वैसे मुझे कुछ नहीं चाहिए । अम्मा के पास था ही क्या जो हम  लोगों को मिलेगा। "
  मँझली ने कहा ,”नहीं बाबू जी अम्मा हमे सबसे ज्यादा प्यार करती थी और उन्होने कहा था कि मोटे कंगन वे हमको ही देंगी, आप तो वे कंगन हमको ही देना ।”
छोटी बहू नई थी उस समय कुछ न बोली जमना दास जी ने सोचा,”चलो छोटी ठीक है उसने कुछ नहीं मांगा।“ लेकिन रात को दूध लेकर छोटी आई और धीरे से बोली ,” बाबू जी आप तो जानते ही है कि अम्मा ने हमको मुंह दिखाई मे एक जोड़ी पतली वाली पायल ही दी है और तो मुझे कुछ नहीं दिया मेरे पास केवल वही जेवर है जो मेरी माँ ने दिये है । बाबू जी आप मुझे अम्मा के जेवरो मे से कुछ दे देते तो मेरे पास उनकी निशानी रह जाती।” और छोटी बहू चली गई।
रात मे अकेले लेटे लेटे जमना दास जी सोचने लगे –“क्या यही प्यार और संस्कार दिये है हमने अपने बच्चों को ? जो आज दस दिन ही हुये कोशी को गए और बहुए जेवरों की मांग कर बैठीं , क्या पता कल बेटे भी कुछ मांग बैठे ।“
इसी तरह सोचते हुये वे उठे और धीरे धीरे चलते हुये कौशल्या जी की अलमारी की पल्ले खोल कर खड़े हो गए और उनकी हर चीज को हौले से स्पर्श करने लगे । उनकी साड़ियाँ वैसे ही तह की हुई सजी रखी थी जैसे वो रख गई थीं वैसे ही जेवरों के डिब्बे रखे थे उनके नाम से ली गई जमीन के कागज भी सहेज कर रखे हुए थे , इससे पहले वे ही तो सब धरा उठाया करतीं थीं , कभी जरूरत ही न पड़ी कि वे देखते कि कौशल्या जी कौन सी चीज कहाँ रखती हैं और कितने पैसे कहाँ खर्च करतीं है , किस तरह घर चलाया जाता है उनसे बेहतर कोई न जानता था
बड़ी सुघडता से सभी कामों को निपटा डालतीं थीं , कभी जमना दास जी को पता ही न चला । आज उनके जाने के बाद जीवन मे पहली बार अलमारी खोली और उनकी सभी चीजों को छूते और यादों मे खो जाते । जमना दास जी को उनकी हर वस्तु मे उनके होने का अहसास हो रहा था ।“ ये तोड़ियाँ माँ ने कौशल्या को मुह दिखाई मे दी थीं ,ये कंगन माँ ने बड़े बेटे के आगमन पर कोशी को तोहफा दिया था , ये नवरत्न हार स्वयम उन्होने कोशी को फसल अच्छी होने पर दिया था । ये चूड़ियाँ मँझले के जनम पर , और मोटी वाली जंजीर छोटे के जनम पर दी थीं, ये मोतियों का सेट बड़े चाव से बड़े के ब्याह पर खरीदा था । और भी तमाम जेवर जो धीरे धीरे कर जमा किए थे उनमे से कुछ तो कौशल्या जी ने स्वयम ही बहुओं को दे डाले थे। अब रहे सहे जो जेवर थे वो भी उनको ही मिलने थे, कौन बेटी है जो उसको देना पड़े , मिलेगा तो तो इन लोगों को ही , लेकिन इन सबका मन छोटा हुआ जाता है। जमना दास जी ने सोचा काश ! कोशी तुम अपने जीवन मे ही इन सबको दे जाती तो आज इन लोगो का  ये रूप न देखना पड़ता। और उन्होने मन ही मन निर्णय ले लिया कि जब कोशी की तेरहवों हो जाएगी वे सारा समान और जमीन बराबर बराबर सबमे बाँट देंगे । और उनके विषय मे सोचते सोचते कब सुबह हो गई पता ही न चला । सुबह तड़के जाकर उनकी झपकी लगी थी कि थोड़ी ही देर मे खटपट शुरू हो गई और बाहर से किसी ने आवाज लगाई “बाबू चलो उठो सबेरा हुई गवा ।”   जमना दास जी उठ कर बाहर आए । नित्य कामों को निपटाने के बाद जमना दास जी बरामदे मे आकर बैठ गए और अगले दिन की तैयारियों मे लग गए ताकि तेरहवीं का कार्यक्रम ठीक से निपट जाए और कोई व्यवधान न आए । पीछे से सारी चीजों का बटवारा वो खुद ही कर देंगे । शाम ढलने से पहले ही बहू बेटे इकट्ठा हुए और बोले ,” बाबू जी हमे आपसे कुछ बात करनी है ।“ “हाँ बोलो क्या कहना चाहते हो” जमना दास जी बोले । सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे मानो कह रहे हों तुम कहो । अंत मे काफी झिझक के बाद छोटे ने बाबू जी से कहा ,”बाबू जी हम सब चाहते हैं कि आप अभी वसीयत भी बना दें वरना कल का क्या भरोसा आप भी माँ की तरह ....... ।“ ज़ोर से चीख पड़े जमना दास ,” छोटे …………. “ । इसके आगे कुछ न कह पाये वे गला भर आया आँसू छिपाते हुये बोले ,” नामुरादों माँ की चिता की आग तो ठंडी हो जाने देते ।“ इसके आगे वे कुछ न कह पाये उठ कर अपने कमरे की ओर चल दिये ।
 एकदम एकाकी , कोई भी आज उनके साथ न था । किसी को भी उनके एकाकीपन से सरोकार न था बस था तो उनकी और माँ की संपत्ति का                                                 

Saturday 20 April 2013

"सुबीते दिन" ( बाल कहानी )

आँगन के चौरे पर दादी खटिया बिछाये आराम से लेटी थीं , किसी भजन की कड़ियाँ गुनगुना रहीं थीं - " काहे न लेत प्रभु मोरी खबरिया , आन बसो नैनन में मोरे साँवरिया ।" छोटी पोती दौड़ती हुई आई और दादी के बगल मे लेट गई, उनका हाथ उठा कर अपने ऊपर रखते हुये बोली-"दादी तुम हमेशा साँवरिया को ही क्यों बुलाती रहती हो क्या वो तुम्हारे दोस्त है ?" उसके इस भोले से प्रश्न को सुनकर वहाँ मौजूद सभी खिलखिला कर हंस दिये और दादी कुछ शर्माते हुए बोली -" चल हट पगली, साँवरिया तो हम किशन कन्हैया को कहते है ।" "दादी  आप उनको साँवरिया ही क्यों कहती हैं, माँ तो मोहन कहती है" उसने फिर पूछा । दादी ने समझाया  ,"  अरे मेरी चमकी पुतरिया सुन  किशन  कन्हैया को ही हम मोहन, मुरलिया वाले, नटवर, नन्द किशोर, श्याम, साँवले, साँवरिया और भी कई नाम है जिन नामों से हम मदन मोहन को बुलाते  है। जैसे तुम्हारा नाम तो श्वेता है पर हम सब तुम्हें अलग अलग नामों से बुलाते  हैं ये तुम्हारे प्यार के नाम हैं वैसे ही किशन कन्हैया के भी प्यार के ढेरों नाम हैं।"  श्वेता आश्वस्त हो  गई। वहीं दादी के बगल मे ही लेट कर  सो गई । दादी प्यार से उसके सिर पर हाथ फिराती सोचने लगीं, "कितना अच्छ जीवन है इन नन्हें बच्चों का न इन्हे कोई चिंता न कोई फिकर,  बस मस्त स्वच्छंद जीवन होता है ।" वो भी बगल मे लेट कर धीरे से सो गई ।  कितने सुबीते  मे   थे  दोनों।   

              

Monday 11 March 2013

शिरोमणि



कई वर्ष बीत गए। दुबारा उससे मुलाक़ात नहीं हुई ।  आज वो अचानक हमारे घर आया था । उसको देख मेरे आश्चर्य की सीमा न रही । जिसको मै देखा करती थी या जो उसके विषय मे कल्पना की थी। वह उससे एकदम  अलग था ।  वो व्हील चेयर  पर बैठा था उसका ड्राइवर  दरवाजे तक छोड़ गया था। मै पहले तो उसे पहचान ही नहीं पाई थी उसने अपना परिचय दिया -" दीदी मै शिरोमणि ! अंदर नहीं बुलाएंगी।" मैने कहा -" हाँ हाँ आओ अंदर आओ प्लीज़ । " और वह अपने हाथ से व्हील चेयर को धकेलता हुआ अंदर आ गया , मैंने उसकी चेयर पकड़ी -" लाओ मै ले चलूँ ।"  वो बड़े ही आत्म विश्वास से बोला - "नहीं दीदी , मै कर लूँगा । " और वह अपने आप ही अंदर तक आया । मै एक पल को अतीत मे खो सी गई ।
पतंग की डोर हाथ मे पकड़े सात आठ साल का वो बालक अपनी धुन मे भागा जा रहा था।  इधर उधर की कोई खबर न थी। बस उसकी निगाहें अपनी पतंग पर ही टिकी थी । कोई बड़े ज़ोर चिल्लाया - "क्या कर रहा है मरेगा क्या ?" तब वह आसमान से धरातल मे आया , सामने देखा गाड़ी वाला हार्न बजा रहा था और  उसने खुद को सड़क के  बीचोंबीच  खड़ा पाया । फुर्ती से किनारे हुआ और झट से उन गाड़ी वाले अंकल से क्षमा मांगी । वो ऐसा ही था अपनी धुन का पक्का , जिस काम को पकड़ता उस काम मे पूरी तरह रम जाता । चाहे खेल हो या पढ़ाई या घर मे माँ का हाथ बटाना हो या फिर दोस्तों के साथ मस्ती करना। अपने सभी भाई बहनों में सबसे ज्यादा होशियार और चंचल था वो ।  उसके माता पिता उससे हमेशा खुश रहते । उसके पिता अक्सर कहते देखना - "मेरा शिरोमणि एक दिन मेरा नाम अवश्य ऊंचा करेगा लोग मुझे शिरोमणि के बाप के रुप मे जानेंगे ।" और ऐसा कहते वक्त उनकी गर्दन गर्व से तन जाया करती चेहरे पर अव्यक्त खुशी झलक जाती । जिसका अहसास केवल शिरोमणि ही कर  पाता या उसकी माँ  । उसकी माँ रत्ना देवी बड़ी मेहनतकश महिला थीं । खाली बैठने से उन्हे सख्त चिढ़ थी । वे कम पढ़ी लिखी थी किन्तु किसी भी पढे लिखे से कम न थी । हर काम मे वे दक्ष थीं,  इतनी सधी और सटीक बात कहती कि उनके आगे बड़े बड़े झुक जाया करते । उन्होने अपने सभी बच्चों को भरपूर प्यार और संस्कार दिये थे । तभी तो सभी बच्चे बड़े ही सौम्य और सुसंस्कृत थे । 


फोटो गूगल से साभार

 मेरी जब शिरोमणि से मुलाक़ात हुई तब वह चार पाँच वर्ष का रहा होगा । वह उस विद्यालय मे पढ़ता था जहां मेरी नियुक्ति हुई थी । उस समय वह पहली कक्षा का छात्र था । मै जिस कालोनी मे रहती थी वहाँ से उसका घर थोड़ी ही दूरी पर था । इसलिए वह शाम को अक्सर मेरे पास भाग आता -" दीदी मुझे आपसे कुछ पूछना है ।" और आकर वह मेरे पास से जाना ही न चाहता । मोहन मणि, उसका बड़ा भाई जब उसे बुलाने आता तब भी वह बड़ी न नुकुर के बाद ही वह जाता । सच इतना मेधावी बालक  देख मुझे हैरानी होती। जो पढ़ने के लिए इतनी जिद करता था । एक दो बार मेरी उनकी माँ से मुलाक़ात हुई तब मैंने जाना कि बच्चा माँ जैसा ही है । वो कक्षा चार मे था जब मैंने विद्यालय छोड़ा । उस दिन वो बहुत रोया । मेरे लिए उसको समझाना बड़ा मुश्किल हो रहा था । मैंने उसे अपने नए घर का पता दिया और उससे कहा जब तुम्हारा मन हो मिलने आ जाना । थोड़ी बहुत औपचारिक बातों के बाद मैंने पूछा - " मणि ( मै उसे मणि कहा करती थी ) ये सब कैसे हुआ क्या कोई एक्सीडेंट ! " कुछ देर चुप रहा वो फिर बोला - " क्या बताऊँ दीदी आपके वहाँ से चले आने के बाद कुछ दिन तो मेरा उस स्कूल मे मन ही नहीं लगा , माँ के समझाने के बाद किसी तरह मै वापस लौट पाया । सातवीं कक्षा मे था माँ का स्वर्गवास हो गया और उनकी मृत्यु ने हम सबको तोड़ कर रख दिया हम पर मानो दुःखों का पहाड़ ही टूट पड़ा । पिताजी भी बीमार रहने लगे । बड़े भैया की  कैलिफोर्निया मे  नौकरी लग गयी थी वे चले गए अब घर पर  दीदी और मेरा छोटा भाई बचे । पैसे की कमी बड़े भैया कभी होने नही देते थे तो हमारी पढ़ाई अच्छे से हो गई दीदी की शादी होनी थी , पिताजी  कही जा नहीं सकते थे इसलिए बड़े भैया ने लड़का देखने की जिम्मेवारी मेरे ऊपर डाल दी थी । पर दीदी की शादी से पहले भैया की शादी तय हो गई , भैया ने शर्त रखी कि वे पहले बहन की शादी करवाएँ या इंतजार करें । लड़की वालों ने सोचा कि लड़का अच्छा है हाथ से निकल जाएगा इसलिए उन्होने बहन के लिए लड़का  खोजना शुरू कर दिया । जल्द ही दीदी  की शादी तय हो गई । भैया और दीदी दोनों की शादी एक ही हफ्ते मे दो दिन के अंतर पर हो गई । शादी के बाद दीदी ससुराल चली गई और भैया भाभी  को साथ लेकर चले गए । अब उनका फोन आना भी कम हो गया था हमारे फोन करने पर भाभी फोन उठातीं और बस दो चार बात करके फोन काट  देतीं भैया को कभी बताती भी या नहीं , मालूम नहीं । पिताजी को कैंसर हो गया था , वे भैया भाभी से मिलना चाहते थे । रोज उनकी तकलीफ देखकर मै भैया को फोन करता , पर भैया व्यस्तता के कारण न आ पाने की बात कहते और मुझे तमाम  बातें समझा देते । एक दिन पिताजी भी अपनी बीमारी से न लड़ सके और चल दिये सदा के लिए । अब मै अकेला रह गया किसे अपने मन की बात सुनाता । भैया दीदी आए भी मेरे विवाह की बात करने , लेकिन मै  कोई अच्छी नौकरी किए बिना विवाह नहीं करना चाहता था । सब थोड़ा बिगड़े और चल दिये अपने रास्ते । शादी के बाद भैया काफी बदल गए थे। उनका अपना परिवार हो गया था उसकी चिंता उन्हे पहले करनी थी । मै पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर एम बी ए करना चाहता था मैंने भैया से कहा उन्होने खुशी से  कहा - बिलकुल करो पर साथ ही कोई पार्ट टाइम जॉब भी कर लो तुम्हारा खर्च भी निकल आयेगा । मैंने उनकी बात मान ली नौकरी ढूढ़ने लगा। एक मल्टीनेशनल कंपनी मे पार्ट टाइम जॉब मिल गयी । मै बड़ी खुशी से कई सपने बुनते हुए  घर की तरफ आ ही रहा था कि एक तेज रफ्तार कार ने जोरदार टक्कर मारी मै उछल  कर गिरने तक होश मे था। फिर मुझे याद नहीं कि क्या हुआ । मै अस्पताल मे था मेरे कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी दूसरे पाँव की हड्डी बीच से आधी  हो गई थी  । मेरे सारे सपने , सारी इच्छाए सब चकनाचूर हो गए थे । मेरे पिताजी का सपना चूर चूर हो गया था । मै बहुत रोया । माँ बाबू जी बहुत याद आए पर नियति के आगे झुकने के सिवा कोई रास्ता भी न था । भैया भाभी आए मिले और चले गए दीदी और जीजा जी अक्सर आ जाते पर वो भी कितना समय दे पाते । मेरा कष्ट तो जीवन भर का था । कूल्हे की हड्डी जुड़ गयी थी उठ कर बैठने मे छह महीने लगे , अब अगला कदम खड़े होने का था । यहाँ किस्मत ने धोखा दे दिया । दोनों टांगों मे ब्लड सर्कुलेशन जीरो हो गया था । काफी देखभाल और फिजिकल एकसरसाइज़ की जरूरत थी । दो वर्षों तक एकदम बिस्तर पर पड़े पड़े पागल सा हो गया था । एक नर्स जो मेरी देखभाल किया करती थी एकदिन उसने मुझसे प्रणय निवेदन किया । मैंने सोचा शायद मेरे पर तरस खाकर वह ऐसा कह रही है । मैंने उसे झिड़क दिया वो कुछ न बोली चुपचाप चली गई । कई दिनो तक वह मेरे कमरे मे न आई। डाक्टर से उसके विषय मे पूछा । डाक्टर ने बताया की वह परीक्षा देने अपने होम टाउन गई है , पढ़ाई की बात सुनकर मेरे मन मे हूक सी उठी मेरा भी मन किया कि  क्यो न यहाँ पड़े पड़े पढ़ाई कर ली जाए । मैंने डाक्टर से कहा कि क्या वे कुछ किताबों का इंतजाम कर देंगे। उन्होने तुरंत हाँ कर दी , एक वे ही मेरे सुख दुःख के साथी थे उन्होने ही पिताजी का भी इलाज किया था।  पिताजी के चले जाने के बाद उन्होने एक पिता कि तरह ही मेरी देखभाल की । मैंने कुछ किताबों के नाम लिख कर दे दिये उन्होने वे किताबे मँगवा दीं । मैंने पढ्ना शुरू कर दिया वही रह कर एम बी ए की तैयारी पूरी कर ली । सेहत मे भी सुधार आने लगा था क्योकि जब जीने की इक्षा हो तो सेहत भी सही रहने लगती है । डाक्टर अंकल ने फार्म भी भरवा दिया , अब मेरे अंदर जोश जाग उठा था । दुगनी लगन से पढ़ाई की और  परीक्षा पास कर ली उन्होने ही एक कंपनी मे इंटरव्यू करवाया विकलांग कोटे  से   जॉब मिल गयी । आज मै उस कंपनी का एम डी हूँ । कंपनी ने मुझे फ्लैट और गाड़ी भी दे रखी है । काफी कष्टों के बाद ये मुकाम पाया है । आज मै अपने जीवन मे संतुष्ट हूँ । "
मेरे पूछने पर कि शादी की कि नहीं तो वो बोला - " की न मारिया से,  वही नर्स । "
मुझे लगा कि सच मे वो " यथा नाम तथा गुण " की कहावत को चरितार्थ कर रहा है ।  
  

Monday 4 March 2013

कहाँ है मेरा घर


शाम का समय था यही कोई चार बजे होंगे जब हम सब हरिद्वार पहुंचे । मैंने सोचा चलो अभी गंगा स्नान कर आती हूँ अन्यथा वहाँ शाम की आरती  के लिए बहुत भीड़ हो जाएगी बच्चों और माँ को स्नान कर पाना मुश्किल होगा । बच्चे अपनी नानी का हाथ पकड़े आगे चले गए थे मुझे कमरे को बंद कर निकलना था तो मै पीछे रह गई जब तक मै पहुंची सब नहाने धोने मे लगे थे । गंगा के किनारे सीढ़ियों पर धीरे धीरे चढ़ती हुई वो वृद्धा हाथ मे बड़ा सा कलसा लिए वो भी जल से भरा था जिनकी उम्र करीब नब्बे वर्ष के आसपास रही होगी , जितनी उनकी उम्र थी उसकी चौगुनी झुर्रियां उसके शरीर पर थी । परंतु मुख पर तेज था वो देखने से काफी फुर्तीली नजर आ रही थी । मै सीढ़ियाँ उतर रही थी ज्यादा भीड़ भाड़ न होने की वजह से मै थोड़ा आराम से चल रही कि मेरी नजर उन पर पड़ी उनकी तरफ बढ़ते हुए मैंने सोचा शायद वे चल नहीं पा रही है मै उनकी मदद कर देती हूँ । मैंने बढ़ कर उनको पकड़ा – “ अम्मा जी आप अकेले ही चली आईं कोई  साथ नहीं है क्या ?इतनी उम्र हो चली है आपकी कहीं आप फिसल जाती ।" हँसते हुए उन्होने जवाब दिया – “ नहीं बेटा दुनिया मे अकेली ही आई थी किसी को भी साथ लेकर नहीं आई थी , सारे रिश्ते तो यहीं बने थे यही टूट भी गए ।” और आगे बढ़ने लगीं । मैंने फिर कहा – “ लाइये अम्मा जी मै आपका कलसा ऊपर पहुंचा देती हूँ । वे बोली – “ बेटा ये तो मेरा रोज का काम है , मै रोज सुबह शाम आती हूँ , नहाती हूँ और अपने भोले बाबा को नहलाती हूँ , तुम न परेशान हो जाओ तुम ।” मै वहीं खड़ी उन्हे ही देखती रही वे झटपट सीढ़ियाँ चढ़ गईं और वहीं घाट पर बने शिव जी के मंदिर मे चली गईं । मै पूरा समय उनके विषय मे ही सोचती रही । मन बहुत व्यथित था उनसे मिलने और उनके विषय मे जानने की इच्छा बलवती हो रही थी । अगले दिन सुबह जल्दी ही उठ कर उसी घाट पर पहुंची जहां वो महिला मिली थी ,पर वो वहाँ न दिखी वहीं इंतजार करना ज्यादा उचित लगा सो वहों बैठ गई । थोड़ी देर मे वे आ गईं तब तक मै स्नान वगैरह से निवृत्त हो चुकी थी । और उनका पूजन भी समाप्त हो गया था । मै लपक कर उनकी ओर बढ़ी – अम्मा जी आपसे कुछ बाते करनी है।” वे हंस दी – वहीं मंदिर के बाहर ही हम दोनों बैठ गए । “बोल क्या बात करना चाहती है ? मुझे तो कल ही लगा था कि तू मेरी बात से अभी संतुष्ट नहीं हुई है , तू मेरे पास फिर आएगी जरूर।“ मैंने कहा – अम्मा जी आप यहाँ कब से रह रही है , या आप यही की रहने वाली है और अगर यहीं की रहने वाली है तो अकेले क्यों इस उम्र मे भटक रही है ।” और भी जितने प्रश्न मेरे मानस पर उभरे थे सभी एक एक कर कह डाले।  वे हंसी पर इस बार हंसी मे दर्द उभर आया था । कुछ सोंचने लगी और उनकी आंखे भर आई आँसू लुढ़क कर बहने लगे । मैंने कहा -“ अम्मा जी आपको तकलीफ देना नहीं चाहती आप न बताना चाहे तो न बताए कोई बात नहीं ।” वे बोली – “नहीं बेटा ऐसी बात नहीं है मर्ज जब पुराना हो जाता है तब नासूर बन जाता है और नासूर कभी कभी धोखा दे देता है । मै अल्मोड़ा की रहने वाली थी पर जीवन ने ऐसा भटकाया कि अब तो ठीक से यह भी याद नहीं कि मै कहाँ कहाँ रही हूँ आज जीवन के अंतिम पड़ाव पर मै यहाँ अपने भोले बाबा की शरण मे हूँ और दीन दुःखियों की सेवा कर लेती हूँ मुझे बड़ा सुख मिलता है । फिर वे कहीं खो सी गई - " जब जन्म हुआ उसी के दो घंटे बाद माँ चल बसी । पिता ने कुलक्षणी कहकर ठुकरा दिया । आजी (दादी )के पास रही , बिन माँ की बच्ची थी तो प्यार दुलार की उम्मीद तो खत्म हो गई थी, फिर भी आजी ने बड़े प्यार से पाला था । लेकिन मेरी फूटी किस्मत आजी भी जल्द ही परलोक सिधार गईं ,पिता ने दूसरा ब्याह कर लिया था नई माँ ले आए थे । सोचा शायद नई माँ के साथ खूब काम करूंगी तो प्यार मिल जाएगा , पर नई माँ तो आई ही इस शर्त पर कि मुझे घर मे नहीं रखा जाएगा । मुझे घर से बाहर निकाल दिया गया । मै बिन माँ बाप की बच्ची कहाँ जाती एक पड़ोसी के घर शरण ली पर वहाँ भी कितने दिन रहती । वहाँ से ननिहाल जाना सही लगा तो उन चाचा के साथ अपने ननिहाल आ गई । सोचा कि नाना नानी के साथ जीवन ठीक से कट ही जाएगा । परंतु अभागी मै यहाँ भी जगह न मिली , आए दिन घर मे मामा मामी का नाना नानी से झगड़ा होने लगा । इस झगड़े अंत हुआ मुझे अनाथ आश्रम भेज कर । यहाँ दीदी जो संचालन करती थी वो सभी को बड़े ही प्यार से रखती थी । कुछ समय ठीक से कट गया । अब तक मै चौदह वर्ष की हो चुकी थी और खाना बनाना , कपड़े सीना , पिरोना , सभी काम अच्छे से सीख गई थी । आश्रम का खाना बनाती और थोड़ा सिलाई का काम बाहर से ले आती तो वह भी कर लेती लोग हमारे कम से बड़े खुश थे । धीरे धीरे मैंने दीदी के साथ पढ्ना लिखना भी सीख लिया और तब के जमाने मे मैट्रिक पास कर लिया । समय कटता गया मैंने सोचा शायद अब जीवन की कठिनाइयाँ समाप्त हो गई है । परंतु कहाँ इतना लंबा जीवन था कठिनाइयाँ तो जैसे मेरी सहचरी ही हो गयी थीं । आश्रम की दीदी भी वृद्ध हो चली थीं वह चाहती थीं की उनके जीवन काल मे ही मेरा ब्याह हो जाए और मै सुख से रहूँ । प्यार और ममता क्या होती है यह मैंने उनके सानिध्य मे जाना । उन्होने मेरे लिए वर की तलाश शुरू कर दी काफी समय के बाद एक लड़का मिला जो बनारस मे एक डिग्री कालेज मे प्राध्यापक था उसकी पहली पत्नी मर चुकी थी वह मुझसे विवाह करने को तैयार हुआ । वे देखने बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व वाले थे मैंने सोचा मै साधारण नयन नक्श वाली लड़की हूँ ये क्या विवाह करेंगे लेकिन वे तैयार थे सारी बातें हमारी आश्रम वाली दीदी ने बता दी थीं और तय भी कर लिया था । एक बहुत बड़े आदमी ने मेरे ब्याह का खर्च उठाया बड़े धूम धाम से दीदी ने मेरा ब्याह किया और मै पति साथ बनारस चली गई । इधर दो महीनों के बाद पता चला की दीदी का भी स्वर्गवास हो गया है । मुझे बड़ा धक्का लगा मैंने पति से आश्रम जाने की इच्छा जताई तो वे बिगड़ गए और दुबारा फिर वहाँ न जाने की कसम भी ले डाली । मै भी क्या करती सुखमय जीवन की अभिलाषा मे उनकी बात मान ली । एक साल के बाद मैने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया , खुशियाँ मानो मेरी झोली मे आने को तैयार थी कि हमारे पति का तबादला बुलंदशहर हो गया , और मै मेरे बेटे के साथ अकेली घर मे रह गई । समय काफी हो गया बेटा भी बड़ा हो रहा था मैंने पति से कहा कि अब अभिनव बड़ा हो गया है अब हमे साथ रहना चाहिए यूं अकेले कब तक !! पति ने झ्ंझलाते हुए कहा - " कहो तो छोड़ दूँ नौकरी साथ मे रहने लगूँ ।"   मैंने सकुचाते हुए कहा - " मै ये तो नहीं कह रही कि नौकरी छोड़ कर साथ रहें , आप हमे भी साथ ले चलिये ।"  परंतु बहस का कोई निष्कर्ष न निकाला जा सका । कुछ दिन बाद पति देव आए तो बेटे को अपने साथ लिवा गए , मै  फिर अकेली रह गई । थोड़े दिन बाद बेटे ने चिट्ठी लिखी माँ यहाँ पापा ने मेरा दाखिला बड़े ही अच्छे स्कूल मे करा दिया है , घर भी बड़ा अच्छा है काम करने को एक आंटी आती है वही झाड़ू कटका बर्तन कपड़े और खाना बनाना सारा काम कर जाती है आप भी आ जाओ बिना आपके घर अच्छा नहीं लगता ।
और उसने घर का पता उसी चिट्ठी मे लिख दिया । मै खुशी खुशी समान बांध कर हजारों सपने बुनती हुई जा पहुंची जहां मेरा संसार था । पति ने मुझे देखा तो भड़क गए - " एकबार बताना तो चाहिए था चली आई बिना बताए" और तमाम बाते वो बड़बड़ाते रहे और मै चुपचाप सुनती रही । सोचा ऐसी भी कौन सी गलती मैंने कर दी कि ये इतना भड़क गए । लेकिन उस दिन के बाद से मेरे अपमान का जो दौर चला वो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया । बेटे को भी उनका ही भूत लग गया वो भी उनका ही साथ देने लगा ।
सोचा चलो कोई बात नहीं । बेटा तो बड़ा हो ही गया था एक सुदर्शन नवयुवक बन गया था नौकरी भी अच्छी लग गयी थी सोचा ब्याह कर दूँगी बहू आएगी तो समय सुधर जाएगा । लेकिन ब्याह  की बात पक्की भी हो गई मुझसे पूछा भी न गया । यहाँ तक कि उसके घर वालों को मुझसे मिलवाया भी न गया अब ये मेरे अपमान की  इंतेहा हो चली थी ।" थोड़ा रुककर एक गहरी सांस ली फिर बोलना शुरू किया । विवाह के निमंत्रण  भी बांटे  गए पर मुझे एक बार भी शामिल न किया गया । विवाह का दिन भी आ गया मै बड़े चाव से दौड़ कर सब कम खुद ही करने लगी कि मेरा बेटा है इसके ब्याह मे मै नहीं  काम करूंगी तो कौन करेगा । बारात गई पर मुझे किसी ने न पूछा । बेटा मिलने भी न आया । मन बहुत आहत हुआ पर बहू का इंतजार करने लगी । बहू आयी स्वागत करने के लिए थाली लेकर दौड़ी आई तो सबने रोक दिया पति ने सबके सामने अपमानित कर बाहर कर दिया । मै बेटे की ओर लपकी  शायद  बेटे के दिल मे कोई जगह बाकी हो । लेकिन बेटे ने मुंह फेर लिया । अब तक सहने की ताकत भी समाप्त हो चली थी एक लक्ष्मी घर आई थी दूसरी निकाल दी गई थी । मै सीधे हरिद्वार चली आई तब से यही हूँ  लोगो सेवा करती हूँ दुखियों की सेवा करती हूँ । मैंने देखा कि भीम गोड़ा मे उनकी छोटी सी कुटिया है वही बाहर एक स्टोव रख कर वे चाय वगैरह बनाती है और इसीसे अपना खर्च निकाल लेती है । मेरे पूछने पर कि -"क्या अब तक आपके पति और बेटे मे से किसी ने आपको खोजने की कोशिश नहीं की ।"कहने लगीं कि जिसने हाथ पकड़ा था उसी ने हाथ पकड़ कर निकाल दिया था वह क्या खोजेगा । बेटे ने बेसहारा छोड़ दिया था उसको कहाँ मेरी याद  आती , हाँ एक बार बेटा और बहू आए थे यहाँ घूमने शहर मे भीड़ बहुत थी कहीं जगह न मिली थी तब मैंने यहीं ठहरा लिया था । बेटे ने कहा क्या यही आपका घर है । क्या बोलती मै कि - "कहाँ है मेरा घर।"
उनकी दास्तां काफी दुःख भरी थी मै सोचती हुई चल दी कि सही ही तो है एक स्त्री का घर कौन सा होता है माँ बाप का , पति का , बेटे का या फिर कोई नहीं ।