दो दिनों की मूसलाधार बारिश ने गंगा को अपने पूरे यौवन पर ला दिया था । जोशीली लहरें तट को काट कर बहा ले जाना चाहती थीं । कच्चे तट तो कट कर पता नहीं कब के बह गए थे ये पक्का वाला तट भी लहरों की भेंट चढ़ने वाला था। उसी तट पर एक स्त्री जिसकी बड़ी बड़ी हिरनी जैसी आँखें, , छरहरी काया, गौर वर्ण व अधपके लंबे बाल जिन्हे बड़ी बेतरतीबी से गोलाकार जूड़ा जैसा बांध रखा था वो देखने मे काफी सुंदर थी, गंगा के किनारे लगे पीपल के नीचे सिकुड़ी सी बैठी थी और एकटक गंगा की लहरों को निहार रही थी । बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसी ही तेज बारिश मे वो सुबह से उसी जगह बैठी थी मानो कोई मूरत हो। कई बार दूर से ही लोगों ने उसे आवाज भी दी ,”बहन इधर आ जाओ छाया मे बैठ लो क्यों वहाँ भीग रही हो ।“ पर वह वह तो जैसे निशब्द हो गई थी और उसे अपने आसपास न कुछ दिखता था न कोई आवाज ही सुनाई देती थी । आखिर हार कर लोगों ने कुछ कहना ही बंद कर दिया । पूर दिन हो गया सुबह से सांझ हो गई अब अंधेरा गहराने लगा था । एक मजबूत हाथ ने लगभग घसीटते हुए उसको वहाँ से हटाया । और अंदर टीन की शेड मे लाकर बैठा दिया। चुपचाप वह वहाँ एक कोने मे जाकर बैठ गई । जिस हाथ ने उसे बारिश से बचाया वही हाथ उसने अपने सिर पर महसूस किया । उस स्त्री ने अपना घुटनो मे छुपा हुआ चेहरा उठाया और उस ओर देखने लगी । उसके सामने एक बुजुर्ग जिनकी सलीके से ऐंठी हुई बड़ी बड़ी मूँछें, रौबीला चेहरा लंबा चौड़ा कद झक़ सफ़ेद कुर्ता धोती पहने खड़े थे । उन्होने अपनी रौबदार आवाज मे पूंछा ,” बेटी क्या बात है? यों इस तरह तुम बारिश मे क्यों भीग रही हो लोग कह रहे थे कि तुम सुबह से यहाँ बैठी हो, कब आई किसी ने नहीं देखा ।”
वह मानो कुछ सुन ही नहीं रही थी उसका दिमाग चेतना शून्य हो गया था , निस्पंदित सी वह बैठी रही । उन बुजुर्गवार ने फिर अपना प्रश्न दोहराया । कोई उत्तर न मिला । वे वहीं उसके पास फर्श पर ही बैठ गए । उन्होने फिर से प्रश्न किया ,” बेटी क्या तुम मुझे अपना कष्ट बताना चाहोगी शायद मै तुम्हारे किसी काम आ सकूँ ।” वह उसी तरह बैठी रही, कुछ कहने को होंठ थोड़ा हिले परंतु काँप कर रह गए । वह बोल न सकी उसकी आँखों से आँसू बह निकले । वहाँ खड़े लोग कानाफूसी करने लगे लगता है बड़े दुःख की मारी है तभी अपना दुःख किसी से बता नहीं पा रही है कोई कहता कि लगता है घर से निकाल दी गई है। वे बुजुर्ग बड़े दयावान थे मनोहर लाल नाम था उनका , वे शहर मे एक गैर सरकारी स्वैच्छिक संस्था चलाते थे । उनकी संस्था का नाम देव सहायता आश्रम था जिसका संचालन उनकी पत्नी प्रभावती जी किया करती थी । उसमे कई बच्चे, बूढ़े और महिलाएँ भी रहती थी। लोग कहते थे कि देव उनके बेटे का नाम था इसी कारण मनोहर लाल जी ने अपनी संस्था का नाम देव सहायता आश्रम रखा है। वहाँ हर मुसीबत के मारे को पनाह मिलती है। प्रभावती जी बड़े स्नेह से सबको रखतीं मानो वे सब उनके अपने हों ।
किसी तरह मनोहर लाल जी ने उस स्त्री से उसका नाम पूछा । उसने अपना नाम ललिता बताया । मनोहर लाल जी कुछ आश्वस्त हुये कि उस महिला ने कुछ बोला तो सही । फिर उन्होने उसके परिवार के बारे मे और वह कहाँ की है, जानकारी चाही ताकि उसे उसके घर पहुंचा दिया जाय । परंतु परिवार के विषय मे पूंछते ही वह बेजार होकर रोने लगी । मनोहर लाल जी घबरा गए , “ ऐसा क्या कह दिया ये इस तरह रोने लगी ।” उसको हिम्मत बँधाते हुए वे बोले, “बेटी रोओ नहीं, चलो हमारे आश्रम चलो वहाँ पहले कपड़े बदल लेना कुछ खा पी लेना फिर बताना। तुम्हें रहने की जगह मिल जाएगी।” फिर उन्होने उसका हाथ पकड़ कर उठाया और पास ही बने अपने आश्रम मे ले गए । आश्रम पहुँच कर अपनी पत्नी से बोले , “ प्रभा जी लीजिये एक और बेटी लाया हूँ आपके लिए इसका नाम ललिता है और ये तब तक यही रहेगी जब तक इसका घर बार नहीं मिल जाता ।” प्रभावती जी ने मुस्कुरा कर उसका स्वागत किया , “ आओ बेटी बैठो” और उसे पहनने के लिए कुछ कपड़े दिये स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं, “आज हमारे घर एक और बेटी आई है। बेटी तुम अब अपनी माँ के पास हो अब तुम्हें दुःखी होने जरूरत नहीं है ।” ललिता फिर रोने लगी उसे बार बार अपनी बेटी याद आ रही थी। वह वहीं पल्लू मुंह मे ठूंस कर बैठ गई ताकि रोने की आवाज किसी को न सुनाई दे। प्रभावती जी ने उसे संभाला और ममता भरे शब्दों मे फिर बोली, “ लगता है कोई बहुत बड़ा दुःख है तुम्हारे मन मे क्या तुम अपने बच्चों को याद कर रही हो? कुछ बताना चाहोगी ?” वह चुप ही रही । प्रभावती जी ने अपनी सहायिका जेनी को बोला , “जेनी , ललिता के खाने पीने की व्यवस्था करो । और उसे अपने साथ कमरे मे ले जाओ सुबह इससे बात करेंगे । अभी शायद इसका मन ठीक नहीं है ।” जेनी उनकी सहायिका थी वो भी मुसीबत कि मारी थी जिसे अपने आश्रम लाकर मनोहर लाल व प्रभावती ने पनाह दी थी ।
जेनी ने ललिता को कमरे मे ले जाकर बोला , “ ललिता ये मेरा कमरा है और अब से ये तुम्हारा भी है अभी तक मै यहाँ अकेली रहती थी । इस बिस्तर पर मै सोती हूँ और ये बिस्तर तुम्हारा है । तुम यहाँ बैठो मै खाने के लिए लेकर आती हूँ।” इतना कहकर वह मुड़ने लगी तभी ललिता ने उसका हाथ पकड़ लिया और सिर हिलाते हुए इशारा किया कि उसे भोजन नहीं चाहिए । जेनी बोली , “कुछ तो खाना ही पड़ेगा वरना बाबू जी व माता जी नाराज हो जाएंगे फिर वे भी नहीं खाएँगे ।” उस आश्रम मे सभी बच्चे मनोहर लाल जी को बाबू जी और प्रभावती जी को माता जी बुलाते थे । उनका ही ऐसा आदेश था कि सभी बच्चे चाहे बड़े हो या छोटे वे उन लोगों को माता जी व बाबू जी कहें । अपने इकलौते पुत्र को खोकर उन्होने हिम्मत खो दी थी उन्होने जीवन त्यागने का मन बना लिया था एक बच्चे ने उन्हे जीवन का पाठ पढ़ाया । उसकी मासूम सी बातों ने उनका हृदय परिवर्तन कर दिया था। उसने कहा , “ मुझे देखो मै तो अकेला हूँ मेरे माता पिता, बहन , दादी बाबा सब थे, जलजले मे सब बह गए । मै ही अकेला बचा । भगवान ने मुझे छोड़ दिया था तीन वर्ष से मै यहीं हूँ लोगो की सेवा करता हूँ कभी खाने को मिल जाता है कभी पैसे भी मिल जाते है , जो पैसे मिल जाते है उन्हे इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि अपनी पढ़ाई शुरू कर सकूँ ।” उसकी बातों ने उन दोनों को हिम्मत और नया जीवन जीने की प्रेरणा दी , कि क्यों न वे एक ऐसा आश्रम बनाएँ जिसमे इस बच्चे की तरह मुसीबत के मारे लोगों को पनाह और स्नेह मिले । उनका समय भी कट जाया करेगा और वे अपना प्यार व स्नेह उन सब मे बाँट सकते हैं जिन लोगों को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है । उनके पास पैसा था घर को ही आश्रम बना लिया । सबसे पहला सदस्य वही बालक था। उसको उन्होने पढ़ाया लिखाया वो बंगलौर मे अच्छी कंपनी मे काम करने लगा उसका ब्याह भी उन दोनों ने ही किया । उस बालक मे वे अपने बेटे देव की छवि देखा करते थे । बार बार कहते , “ ये मेरा देव ही है जो वापस हमारे पास लौट आया है ।” वह भी कहता , “पिताजी आप और माता जी नहीं होते तो मुझे नया जीवन नही मिलता । मै इस मुकाम तक नहीं पहुंचता ।”
ललिता को उस आश्रम आए दो दिन हो गए पर न वो किसी बोलती न ही किसी काम मे रुचि दिखाती। प्रभावती जी ने सोचा ऐसे कब तक चलेगा इस बच्ची से उसके घर बार के विषय मे जानना ही होगा । पता नहीं कहाँ से आयी है क्या दुःख है क्यों बच्चों की बात करते ही रो पड़ती है आखिर ऐसा क्या हुआ है उसके साथ , क्यो नहीं बताना चाहती वो ?
प्रभावती जी ने कमरे मे उसे बुला भेजा । वह आई और चुपचाप बैठ गई । माता जी ने कहना शुरू किया , “ बेटी ललिता कुछ अपने और अपने परिवार के विषय मे बताना चाहोगी ? बेझिझक होकर बताओ हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचाने मे मदद करेंगे ।” वह सोचने लगी क्या बताए वह और किस घर जाएगी जब उसके पास रहने का कोई ठिकाना ही नहीं है । वह चुपचाप ही बैठी रही कुछ न बोली । जेनी पास ही खड़ी थी उसने कहा, “ललिता, माता जी की बात का उत्तर दो ।” ललिता ने सोचा, “मन की व्यथा कह देती हूँ नहीं तो यों ही कुढ़ती रहूँगी शायद ये लोग मेरी बेटी को ढूँढने मे मेरी मदद कर दें ।”
उसने लंबी सांस भरी और कहने लगी , “ माता जी मेरा भी भरा पूरा परिवार था पति रेलवे मे थे और दिल्ली मे तैनात थे , दो बच्चे थे एक बेटा और एक बेटी , बड़ी अच्छी तरह हमारी गृहस्थी चल रही थी, पहले मै गाँव मे सास के साथ रहती थी फिर सास ने मुझे पति के साथ शहर भेज दिया कि बेटे को खाने पीने की तकलीफ होती होगी। मुझे भी शहर आकर अच्छा लगा हालांकि शहर मे हर चीज मंहगी थी फिर भी हम उनकी छोटी तंख्वाह मे भी पूरा कर ही लेते। उनका सपना था बच्चे खूब पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी मे लग जाएँ उन्होने बेटे और बेटी मे कोई अंतर नहीं किया। वो कहते हम कमाते क्यों हैं ताकि हमारे बच्चे अच्छे ओहदों पर काम करें । एक दिन सास का देहांत हो गया अब गाँव मे अपना कहने को कोई न था।” माता जी ने पूछा, “क्या तुम्हारे और कोई रिश्तेदार नहीं हैं कोई ननद , देवर या जेठ ।” थोड़ी देर रुकी आंखो से सैलाब बह निकला फिर बोली , “ दो ननद है उनका ब्याह हो गया है वो अपनी ससुराल मे है, हमारे पति इकलौते थे मेरी सुंदरता के कारण वे मुझे कहीं अकेले न जाने देते, बाजार हाट काम वो खुद ही करते , एक दिन अचानक तूफान आया सरोजनी नगर मार्केट मे कुछ समान लेने गए थे वहाँ आतंकियों ने बम बिस्फोट कर दिया बहुत लोग मारे गए मेरे पति भी ........ ” कह कर वह फूट कर रो पड़ी । माता जी ने उसे हिम्मत बंधाई सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं , “ मत रो बेटी जो हुआ बड़ा बुरा था, उस समय तुम्हारे बच्चे कितने बड़े थे ।” “बेटी बारह साल की और बेटा आठ का” उसने उत्तर दिया । मै पढ़ी लिखी भी नहीं थी जो मुझे नौकरी मिल जाती मैने वहीं आसपास के घरों मे काम तलाशना शुरू किया किसी तरह दो घरों मे काम मिला । आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया था न उससे घर का खर्च निकाल पाता, न किराया और न ही बच्चो की फीस पूरी हो पा रही थी। दिन ब दिन हालत बदतर होते जा रहे थे । किराया न दे पाने के कारण मालिक ने घर से निकाल दिया अब और समस्या खड़ी हो गई । कहाँ जाऊँ किससे मदद की गुहार लगाउ समझ न आ रहा था ।” माता जी ने फिर कहा , “ तुम अपनी ननदों के घर नहीं गई या उन्होने सहारा नहीं दिया ।” उसने उत्तर दिया , “ माता जी वे सब अपने घर द्वार वाली है उन्होने थोड़ी बहुत मदद की लेकिन पूरी ज़िंदगी की ज़िम्मेदारी कौन उठाता है और ऐसे समय मे सब बेगाने हो जाते है चाहे कोई भी हो । अपनी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी मुझे उठानी थी मै दिल्ली छोड़ कर मुरादाबाद बच्चों के साथ आ गई वहाँ मेरे भाई थे सोचा भाई थोड़ी सहायता कर देंगे तो कोई छोटा मोटा काम कर लूँगी बड़े भैया ने कहा “कलकत्ता चली जाओ वहाँ मेरे एक मित्र हैं उनके घर मे खाना बनाने से लेकर सारा काम है और वो रुपये भी दो हजार देंगे ।” उन्होने टिकट का इंतजाम कर दिया मैंने कहा, “भैया यदि कुछ दिन बेटी को आप अपने पास रख लेते तो ... क्योंकि जमाना कैसा है आप तो जानते ही हो , भाभी ने कहा , “नहीं भाई हमारे घर मे भी बड़े बड़े लड़के हैं और हम किसी की बेटी ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकते कोई उंच नीच हो गई तो जवाब कौन देगा न बाबा न।” मै अपने दोनों बच्चों के साथ कलकत्ता के लिए चल दी वहाँ पहुच कर जो नंबर भैया ने दिया था वहाँ फोन किया उन्होने बताया कैसे मै उनके घर पहुँच सकती हूँ । वहाँ पर पता चला कि उनकी पत्नी गर्भवती थी उन्हे फुल टाइम बाई चाहिए थी, मैंने कहा मेरे दो छोटे बच्चे है पूरा समय तो नहीं दे पाऊँगी।” उन्होने कहा, “ सोच लो फिर आ जाना ।” “मैने एक झोपड़ पट्टी मे शरण ली । वहाँ लोग काफी अच्छे थे उन्होने कहा वे बच्चे देख लिया करेंगे । मैंने काम शुरू कर दिया । अब बच्चे स्कूल जाने की जिद करने लगे । बेटी तो समझदार थी वह बेटे को भी समझाती , एक दिन उसने कहा, “ माँ बिट्टू का एडमिशन करवा दो मेरा बाद मे करा देना।” लोगो ने समझाया बेटी सही कह रही है बेटा तो जीवन का सहारा होता है और बेटी बोझ होती है । मैंने कहा , “ नहीं दोनों बराबर पढ़ेंगे उनके पिता ने कभी भी दोनों मे भेदभाव नहीं किया , जब एडमिशन कराने गई तो फीस की रकम सुन कर चकरा गई सोचा चलो अभी बिट्टू का नाम लिखा दूँ इसका पढना ज्यादा जरूरी है । यहाँ मैंने पहली गलती की । आमदनी न बढ़ी और न मै बेटी की पढ़ाई शुरू करा पाई। बस्ती महिलाए कहती इसे भी काम पर लगा ले कुछ अधिक पैसे मिलेंगे जिससे तेरा बेटा तो अच्छा पढ़ लिख जाएगा । मुझे भी बात जंच गई उसे काम पर लगाने के लिए साथ ले गई यहाँ मैंने दूसरी गलती की , मालिक ने उसको काम पर रखने साफ इंकार कर दिया क्योंकि वहाँ बच्चे काम पर लगाने पर जुर्माना पड़ता था । मुझसे गृहस्थी का खर्च उठाए नही उठ रहा था । बेटी भी बड़ी होने लगी थी सारा दिन घर पर खाली रहती घर के काम- काज से फुर्सत होते ही वह वह कुछ काम की तलाश मे निकल पड़ती परंतु उसे कहीं काम न मिलता । मेरा दिल रो उठता कि कहाँ मेरी बेटी पढ़ लिख कर डाक्टर बनाना चाहती थी कहाँ बेचारी दर बदर की ठोकरे खाती फिर रही है, एक दिन वह रात तक वापस न आयी, पूरी रात आँखों मे कटी सुबह होते ही मै मालिक के पास गई , “ साहब मेरी बेटी कल से घर नहीं आयी , साहब ढूँढने मे कुछ मदद कर दीजिये । उन्होने पुलिस मे रिपोर्ट करा दी उसका फोटो भी जमा हो गया । झोपड़ पट्टी वाले सबने कहा, “अच्छ ही है तुम्हारा बोझ खत्म हो गया । रिपोर्ट तो लिखा ही दी है लड़की को पुलिस ढूंढ ही लाएगी न भी मिली तो क्या फर्क पड़ता है बड़ी हो रही थी कोई ऊंच नीच हो जाती कलंक लगता सो अलग तू बेचारी विधवा कहाँ जाती और फिर चल मान ले कि कुछ नहीं होता तो उसकी शादी का खर्च कहाँ से लाती ।” मन भी बड़ा पापी होता है माता जी ये पाप कर बैठा , “सोचा कि बेटा तो साथ है ही, सही भी है बेटी शादी का खर्च कहाँ से लाती ।” मन के पाप के कारण सोच तो लिया पर बेटी का मासूम चेहरा उसकी भोली भाली आंखो ने कभी चैन न लेने दिया । बेटा बड़ा हो गया था परदेस चला गया नौकरी करने वहीं कोई लड़की पसंद आ गई उसने शादी भी कर ली बाद मे खबर दी । मै जिन मालिक के घर काम करती थी उनके घर अब मै घर के सदस्य की तरह हो गई थी उन्होने हार नहीं मानी उनकी बड़ी कृपा रही मुझ पर , वो पुलिस से पूंछ आया करते थे कि पुलिस की क्या कोशिश चल रही है इतना समय हो गया है एक लड़की नहीं ढूंढ पाये। उन्होने ऊपर तक बात की । एक दिन खबर आई कि जिस लड़की का फोटो उनके पास है उससे मिलती जुलती लड़की को बनारस मे देखा गया है । मालिक के साथ मै व पुलिस के कुछ आदमी भी बनारस आये । कई दिन तक खोजने के बाद भी जब कोई हल न निकला तो मैंने मालिक के पाँव पकड़ लिए । मालिक अब आप जाओ वहाँ मालकिन भी अकेली हैं मै यहाँ रह कर खुद ही ढूंढ लूँगी और तब से मै यहीं हूँ । बेटी भी अब बड़ी हो गई होगी पता नहीं कहाँ होगी ।”
माता जी ने कहा , “ क्या तुम्हारे पास उसका कोई फोटो है ।” वह बोली, “ है तो वही बारह साल वाला” और कमर मे खुसा हुआ मुड़ा तुड़ा सा फोटो पकड़ा दिया । उन्होने फोटो मनोहर लाल जी को दिया , “ क्या हम इस फोटो से बच्ची को ढूंढ पाएंगे ।” मनोहर लाल जी बोले , “ प्रयास तो कर ही सकते है ।” उन्होने उस फोटो के पोस्टर बनवाए और नीचे लिखवा दिया ,ये फोटो इस बच्ची के बचपन का है जो भी इस बच्ची को जानता हो या कभी मिला हो वह इस पते पर संपर्क करे, नीचे अपना पता दे दिया । पोस्टर पूरे शहर की दीवारों पर चस्पा करवा दिये ।
एक दिन एक सुंदर सी लड़की एक वृदधा के साथ आयी उसने अपना नाम सुलक्षणा बताया । बोली अपने बचपन की फोटो दीवारों पर देख मुझे हैरानी हुई कि ये फोटो आपको कहाँ से मिली । प्रभावती जी ने पूछा , “ये तुम्हारे साथ कौन है? वह बोली- “ मेरी माँ हैं।” वे हैरान सी उसका मुंह देखने लगीं , “ ये इसकी माँ है तो ललिता इसकी कौन हैं ?” उन्होने फिर कहा , “ बेटी तुम कहीं बाहर से आई हो ।” वह बोली , जी नहीं जब से होश संभाला है इनको ही अपनी माँ के रूप मे देखा है ये न होती तो मै भी न होती ।” फिर वे उस वृदधा की ओर मुखातिब हुईं , “ बहन जी आप इस बच्ची की सगी माँ है ।” वे मुस्कराते हुए बोलीं , “ सगा और सौतेला कुछ भी नहीं होता बहन मै ही इसकी माँ हूँ और ये मेरी ही बेटी है ।”
प्रभावती जी ने उनको सुलक्षणा के बचपन का फोटो दिखाया और पूंछा की ये फोटो कहाँ की है बता सकती हैं आप । तब उस वृदधा ने बेटी को बाहर भेज दिया और कहने लगीं , “ एक दिन मै किसी काम से कलकत्ता गई थी वहाँ ये लड़की लोगों से भीख की तरह काम मांग रही थी । उस समय मै जल्दी मे थी निकल गई वापस लौटी तो ये लड़की कड़ी धूप मे शायद चक्कर खा कर गिर गई होगी सड़क पर पड़ी थी लोगों ने घेर रखा था परंतु उसे उठा कर इसके घर पंहुचाने कि जहमत कोई नहीं उठाना चाहता था । मैंने गाड़ी रोकी उन लोगों से मेरी इस बात को लेकर झड़प भी हुई किन्तु सभी मुंह फेर कर चल दिये । मै इस बच्ची को हास्पिटल ले गयी वहाँ डाक्टर्स ने कहा एक दिन रखना पड़ेगा क्योकि बच्ची काफी कमजोर है, लगता है कई दिनो से ठीक से खाना नहीं खाया, ग्लूकोज चढाना पड़ेगा । मैंने कहा ठीक है जो भी करना है जल्दी कीजिये। इसे इसके घर छोड़ दूँ फिर मै वापस बनारस लौटूगी । दूसरे दिन बच्ची को होश आया माँ को ढूँढने लगी। तब मैंने बताया कल तुम सड़क पर बेहोश मिली थीं । तुम्हे मै ही यहाँ लेकर आयी हूँ । तुम अपने घर का पता बताओ तुम्हें छोड़ दूँ फिर मै वापस जाऊं।” वह बोली , “ माँ जी आप मुझे किसी काम पे रख लो मै पढ़ना चाहती हूँ मेरी माँ काम कर के जो पैसे लाती है उससे घर का खर्च और बिट्टू की पढ़ाई ही बड़ी मुश्किल से हो पाती है ।” मैंने कहा , “ पर मै तो यहाँ नहीं रहती मै बनारस से आई हूँ । वह मायूस हो गई । मुझे लगा वह सच मे पढ़ना चाहती है मै उसे अपने साथ ले आई और अब वह मेरी बेटी है, उसकी हर खुशी मेरी खुशी है । क्योकि मेरे अपने कोई बच्चे नहीं है। इसने मेरे जीवन की कमी को पूरा किया है।”
प्रभावती जी ने कहा , “ लेकिन इसकी अपनी माँ भी इसे खोजती हुई यहाँ आई है कल उसे मेरे पति गंगा के किनारे से लेकर आए है । अभी बुलवा देती हूँ । ” उन्होने टेबल पर रखी घंटी बजाई । जेनी अंदर आई , “जेनी जाओ जरा ललिता को बुला लाओ ,” वह बोली , “जी माता जी ।” और ललिता को बुलाने चली गई ।
सफेद साड़ी मे लिपटी ललिता वहाँ आकर खड़ी हो गई । माता जी ने कहा , “ यह तुमसे मिलना चाहती है ।” “ जी बताइये” बोल कर चुपचाप खड़ी हो गई । उस वृद्ध स्त्री ने उसकी ओर देखा वह अब भी काफी सुंदर थी । वे मुस्करा कर बोली, “ ललिता मेरा नाम कमला कुलपति है मै यहीं की रहने वाली हूँ और गर्ल्स डिग्री कालेज मे प्रोफेसर हूँ एक बेटी भी है मेरी , तुम मिलना चाहोगी।” ललिता ने सोचा मुझे क्या करना है , मुझे तो मेरी बेटी मिल जाए बस । तब तक सुलक्षणा अंदर आई । वह अपनी माँ को पहचान गई लेकिन ललिता उसे नहीं पहचान पाई , वह बड़ी हो गई थी और उसकी बचपन वाली बेटी से बिलकुल अलग थी । सुलक्षणा दौड़ कर माँ के गले से लिपट गई , “माँ तुमने मुझे ढूंढा नहीं ।” बहुत ढूंढा मेरी बच्ची , फिर जब नहीं मिली तो मन को समझा लिया । क्या कहूँ तुझे कि तेरी अपनी माँ ने ही तुझे बोझ मान लिया था मन का पाप था , मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची।” सुलक्षणा ने कहा , “ नहीं माँ नहीं ऐसा मत कहो, तुम्हें मै एक दूसरी माँ से मिलाती हूँ जिन्होने मेरी मदद की और मुझे पढ़ाया लिखाया अपने साथ यहाँ ले आई मेरे लिए तो वे किसी फरिश्ते से कम नहीं है ।” कहकर वह कमला जी की ओर मुड़ी , “ माँ देखिये ये मेरी माँ हैं , जिन्होने मुझे जन्म दिया है । मै कितनी खुश नसीब हूँ मेरी दो माँए हैं ।” कमला जी ने कहा , “ ललिता तुम भी हमारे साथ चलो मै तो एकदम अकेली रहती थी तुम्हारी बेटी ने मेरे घर को पूरा किया मुझे माँ का सम्मान दिया और अब तुम्हारे रूप मे एक बहन भी मिल जाएगी ।” ललिता ने सर झुका लिया कुछ बोल न पाई ,आँसू निकल पड़े । उनके प्यार से उसका दिल भर आया । सुलक्षणा ने कहा, “चलो माँ हम सब साथ रहेंगे।” वह बोली , “ कहाँ ले जाएगी बेटी मुझ बोझ को , मुझे यहीं रहने दे तू इनके साथ खुशी से रह ।” सुलक्षणा ने कहा , “माँ तुम ये क्या कह रही हो, भला माँ भी कभी किसी बच्चे के लिए बोझ होती है । नहीं माँ अब तुम्हें मेरे साथ ही चलना पड़ेगा अब मै भी नौकरी करने लगी हूँ । मुझे सेवा का अवसर न दोगी ।” ललिता सोचने लगी कि मै भी कितनी अधम हूँ जिसने बेटी को बोझ समझने की गलती की । जबकि सच तो ये है कि बेटियाँ ही सच्चा सहारा होती हैं ।” ललिता सभी को कृतज्ञता से प्रणाम कर उन दोनों के साथ चल दी ।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04/07/2013 के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें
धन्यवाद
बहुत खूब, खूबशूरत अहसाह ,बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeletebahut bahut sundar likha apne...padh kar ankhein bahr ayi...sach hi tho hai
ReplyDeletethanks all of you .
ReplyDeletebeautifully written...
ReplyDeleteथैंक्स अपर्णा जी
Deleteअनतरआतमा को निचोड देनी वाली कहानी।बहुत खूबसूरत वणॅन।
ReplyDeleteआपका आभार सचिन जी
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