Tuesday 18 December 2012

चाचा का कोट

जगुआ चाचा बड़े ध्यान से अपने नए कोट को देख रहे थे । उन्होने अपने पोते को मना किया था कि वह कोट न बनवाए , उन्हे जरूरत नहीं है । लेकिन वह नहीं माना और  बनवा ही लाया बढ़िया गरम कोट । वह जानता था कि उसके दादा जी को कोट  कितना पसंद है परंतु वह शायद यह नहीं जानता  था पुराने कोट मे दादा जी पुरानी यादें भी जुड़ी हैं ।

जगुआ चाचा को अपने पुराने दिन याद आने लगे , जब वे छोटे थे । जगुआ चाचा अपने आठ भाई बहिनों मे सबसे छोटे थे । तीन बहिने बड़ी उसके बाद दो मे  भाई फिर दो बहिनें और बाद वे खुद थे । सबसे छोटे होने के कारण सबके दुलारे भी थे , सभी भाई बहिन उन्हे बहुत प्यार करते थे । घर मे माता पिता के अलावा आजी बाबा भी थे जो उन्हे प्यार करते थे ।  उसी गाँव  की पाठशाला  में सभी भाई थोड़ा बहुत पढ़ आया करते । लेकिन उन दिनों बेटियों की पढ़ाई पर बड़ी सख्त पाबंदी थी , लोगों का कहना था  कि लड़कियां पढ़  लिख कर बिगड़ जाएंगी । इसलिए बहिने घर पर ही भाइयों की किताबों से थोड़ा बहुत पढ़ लिया करती थी , और रामायण पढ्ना , पत्र लिखना सीख गयी थी  ।  
जगुआ चाचा उस समय बहुत छोटे थे , जब सभी भाई बहिनो की एक एक कर शादी ब्याह होने लगे । बहिने ससुराल चली गई और घर मे भाभियाँ आ गईं । अब तक चाचा भी आठ नौ साल के हो गए थे ।
 अम्मा ने सोचा कि-"अब केवल जगुआ ही ब्याह वास्ते बच रहा है अब इसका भी ब्याह काज निपटा दें तो गंगा नहाये ।"
पर चाचा मजे से अपना जीवन जीना चाहते थे उसके लिए ब्याह करना काहे को जरूरी है ? गए भाभी के पास अल्टिमेटम दिया कि अगर ब्याह करवाया तो मै घर छोड़ कर चला जाऊंगा ।
सबने समझाया कि -" अब तो तू बड़ा हो गयो है एही वास्ते तेरो ब्याह हो जानो जरूरी है ।"
अम्मा ने समझाया कि - "अब मै बूढ़ी हो रही हूँ अब हाथ पाँव चलते नहीं । तेरी सेवा कौन करेगा । "
तपाक से बोले चाचा - "तो क्या हुआ तुम बूढ़ी हो रही पर भौजी तो बूढ़ी नहीं हुईं है वह मेरी देखभाल कर लेंगी । क्यों भौजी तुम करोगी न । " भौजी ने घूँघट से सिर हिला कर जवाब दिया हाँ ।

बड़े भैया बोले -"यह हमारी दुलहिनिया है हमारी सेवा करेगी , तुम्हारी थोड़े ही । तुम्हें अपनी सेवा करानी है तो अपनी दुलहिनिया खुद लाओ । " 
 चाचा दौड़े गए भाभी के गले मे अपनी छोटी छोटी बाहें डाल कर लटक गए -" जा मेरी मेरी भी दुलहिनिया है , जैसे हमारी तुम्हारी अम्मा एक ही है बाबू एक ही है तो जा दुलहिनिया भी हमारी ।" पूछा भाभी से कि -" काहे भौजी तुम काहे नाही कहती कि तुम हमारी भी दुलहिनिया हो । " भाभी ने सिर हिलाया बोली -" नाही रे ! अपनी दुल्हिन तो खुद को ही लानों  होत है । "

काफी लड़ाई  और  मान मनौव्वलके बाद थोड़ा राजी हुए चाचा पर फिर पूछा कि -"हमे क्या मिलेगा ? 
 " अम्मा बोली -" बउआ तुम्हें नए कपड़े , नए जूते , टोपी , साइकिल , और  नोटों की चमकीली वाली  माला मिलेगी और बाजा भी मिलेगा साथ मे दुल्हिन मिलेगी जैसी भैया के पास है । वो तुम्हारी खूब सेवा किया करेगी ।  "
 चाचा बोले -" भैया को हम अपनी दुलहिनिया नाही देंगे , भैया ने हमे अपनी नाही दी है ।"
 सब हंस पड़े ठीक है ठीक है तुम न देना । चाचा बोले साहब वाला कोट मिलेगा कि नही । पिताजी बोले "अभी तुम छोटे हो जब बड़े हो जाओगे तब साहब वाला कोट भी बनवा देंगे । "
 बड़े धूम धाम से जगुआ चाचा का विवाह हुआ । बहू घर आ गई । अम्मा ने एलान कर दिया की " देखो बहुरिया हमाए बउआ का ध्यान राखियो जो वो कहे वही करियो यही खातिर हम तुम्हें लाएँ है । "
छोटी सी चाची तमक कर बोली - "जे का बात हुई हमाइ बात कौन मानेगा । " 
अम्मा ने कहा- " बउआ  ही तुम्हारी बात मानेगा ।"छोटी सी चाची खुश हो गई । लंबा सा घूँघट निकाले छोटे छोटे हाथों मे ढेर सारी लाल चुड़ियाँ पहने पाँवों मे छम छम करती पायल पहने चाची जब चाचा के सामने से गुजरती चाचा  तपाक से बोल उठते- " ए छमिया ! चल मेरे पाँव  दबा । "
 चाची झट से कहती -" काहे हम काहे दबाएँ  तुम्हाए पाँव , काम तो हम कर रही है पाँव तो हमाए दर्द कर रहे है , तुम्हें खुद ही हमाए पाँव दबाने चाहिए ।" सभी भौजिया खिलखिला कर हंस पड़ती । दोनों छुप कर भाग जाते ।
 बचपन ऐसे ही लड़ते झगड़ते हंसी ठिठोली करते बीत गया । दोनों बचपन से युवावस्था मे पहुंचे । चाचा भी गाँव की पाठशाला से निकल कर शहर के बड़े कालेज मे पढ़ने चले गए । बड़ी लगन और मेहनत से पढ़ाई की और कालेज मे अव्वल आए । सारे मेधावी छात्रों को एक अङ्ग्रेज़ अफसर आकर सम्मानित करने वाले थे । चाचा ने सोचा धोती पहन कर बड़े अफसर के सामने जाना अच्छा नहीं लगेगा सो एक कोट बनवा लेते है । बाजार जाकर कपड़ा लिया और सिलने दे दिया बारह रुपए सिलाई भी दे दी । कोट पैंट पहन कर चाचा बड़े ही शान से जब मंच पर चढ़े , तो तालियों की गड़गड़ाहट ने उनका स्वागत किया । फूल कर कुप्पा हो गए चाचा । फिर तो चाचा आगे बढ़्ते गए बढ़िया नौकरी भी मिल गई । चाचा अपनी छमिया को अपने साथ ले आए ।  दो बच्चे भी हुए एक बेटा और एक बेटी । खुशी का कोई मौका हो चाचा अपना कोट जरूर पहनते । बच्चों का कोई स्कूल का उत्सव हो या घर की बर्थ डे पार्टी ,  बेटी , बेटे का ब्याह किया वही पुराना कोट पहना । बेटे ने कहा भी--" क्या पापा आप भी , अब आपका बेटा कमा रहा है नया सूट तो बनवा ही सकता है ।" बढ़िया गरम सूट का कपड़ा ले आया परंतु चाचा ने उस कपड़े से उसके लिए ही सूट सिलवा दिया । और अपने पुराने सूट की खूबिया भी गिनवा दीं - "बेटा तुम इस कोट की कीमत क्या जानो ? यह कितना कीमती है, यह तब मैंने बनवाया था जब इक्का दुक्का लोग ही कोट बवाया करते थे या फिर अंग्रेज़ लोग ही कोट पहने दिखते ।"  और भी न जाने क्या क्या ।   बेटा विवाह करके विदेश चला गया उसकी नौकरी वहाँ थी , उसकी मजबूरी थी । चाची ने बहू को बेटे के साथ भेज दिया । चाचा और चाची की भी उम्र ढलने लगी अब कम दिखाई पड़ता और काम भी न होता । अकेले जीवन भी कठिन होने लगा था ,एक दूसरे का साथ ही जीने का सहारा था । हालांकि चाचा के मित्र बहुत थे सुबह सैर सपाटे के लिए निकल जाते । लौट कर छाछ पीते और गप्पे लगाते । बेटा बहू का फोन आ जाता तो खोज खबर मिल जाती , कुछ समय खुशी से निकल जाता । एक दिन फोन आया बहू ने दो जुड़वा बेटों को जन्म दिया है , चाची ने बहू को तमाम नसीहते दे डाली- " सुन बेटा ठंड से बचना और पानी उबाल कर पीना , बच्चों की समय समय पर मालिश भी करती रहना, ऊपर का दूध  बिलकुल न देना , काला टीका बच्चों को जरूर लगाना।" हँसते हुए बहू ने कहा - "जी माँ जी, आप बिलकुल चिंता न करें । आपकी बातों का मै पूरा ध्यान रखूंगी ।" और चाची ने खुशी मे  शगुन के गीत भी  गुनगुना डाले । चाची का बड़ा मन था की एक बार बेटा बहू के पास चली जाएँ , बच्चों को देख आयें । चाचा ने समझाया -" तुम नाहक परेशान हो रही हो वहाँ देखभाल करने को लोग होते है फिर मै भी तो यहाँ अकेला हो जाऊंगा। " सीधी साधी चाची  चाचा की बात टाल न पाईं । तकरीबन रोज ही बेटे बहू से बात करतीं और बच्चों की खबर लेती रहतीं । बहू ने हंसी मे कह भी दिया -"माँ जी बच्चों के आगे आप हम लोगों को तो भूल ही गईं हैं , हम भी आपके ही बच्चे हैं । " 
 " अरे नहीं रे !" मूल से सूद अधिक प्यारा होवे है ।" चाची ने मीठी सी झिड़की दी। दो वर्षों के बाद , आखिरकार वह शुभ दिन भी आया जब बहू दोनों बच्चों को लेकर उनके दादी दादा से मिलवाने आ रही है । दादी दादा ने बच्चों के लिए ढेर सारी तैयारियां की । एक छोटी सी पार्टी  अपने पोतो के आने की खुशी मे दे डाली ।  पर चाचा अपना पुराना कोट पहनना न भूले । चाची ने झिड़का - " छोड़ो भी कब तक इस पुराने कोट को सीने लगाए रहोगे , बेटा नया बनवा रहा था तो नया बन जाने दिया होता । कम से कम आज नया कोट पहन लेते ।"  बच्चे बड़े प्यारे थे उनके माता पिता ने बड़े अच्छे संस्कार दिये थे । आते ही उन दोनों ने दादी दादा के पाँव छूए । अपनी तोतली भाषा मे दादा दादी से ढेरों बाते कर डालीं ,इतने प्यारे बच्चे थे थोड़ी ही देर मे  दादी दादा की जान बन गए । कुछ दिन रह कर सब अपने अपने घर वापस चले गए । इधर चाची उदास रहने लगी , वे बच्चों को भूल न पा रहीं थीं और किसी से कह भी न पा रहीं थीं , बस फोन से जब बात होती तो उनके चेहरे की  खुशी देखते ही बनती । उम्र ढलती जाती थी, चाची बीमार रहने लगीं ,   एक दिन चाची सोई तो ऐसी सोई की फिर न उठी । चाचा एकदम अकेले रह गए । बहू बेटा आए , बेटे ने कहा अब तो पापा हमारे साथ चलिये , इसके लिए चाचा राजी न हुए, उन्होने कहा -"यहाँ तुम्हारी माँ की यादें जुड़ी हैं और फिर अपना देश अपना ही होता है, मेरे मित्र भी यहाँ है सब देखभाल कर लेंगे।"  लेकिन बहू बेटे और पोतो के आगे उनकी एक न चली , उन्हे बच्चों के साथ जाना पड़ा। मन मे यही सोचने लगे - " मै बड़ा भाग्यशाली हूँ जो मुझे ऐसे बच्चे मिले है वरना आजकल विदेश जाते ही बच्चे माँ बाप को  भूल जाते है । "  

समय बीतता गया छोटे छोटे बच्चे बड़े हो गए । आज उनका पोता भी काबिल डाक्टर बन गया था और दूसरा इंजीनियर । दोनों अपने मम्मी पापा के साथ साथ दादू के लिए भी गिफ्ट लेकर आए थे । बड़ा पोता कोट लाया था और दूसरा सुंदर घड़ी लाया था । दोनों अपनी अपनी जिद कर रहे थे दादू पहले मेरी गिफ्ट । छोटा वाला उनका हाथ पकड़ कर घड़ी पहना रहा था बड़ा वाला कोट पहना रहा था । पर चाचा अपनी धुन मे खोए थे , उन्हे लग रहा था कि  चाची उन्हे कोट पहना रहीं है । अपनी धुन मे बोल पड़े -"तुम भी क्या छमिया ? आज तक वैसी ही हो । "
दोनों लड़के बड़े ज़ोर से हंस पड़े -"अरे दादू ! ये आपकी छमिया नहीं ये हम है राम लखन ! " दादू झेंप गए ।


Sunday 9 December 2012

डाक्टर साहिबा

               
मै जब भी उस रास्ते से निकलती डाक्टर साहिबा को अपनी क्लीनिक मे बैठा हुआ पाती । वह अपने कर्तव्य की धनी महिला थी, उनका मानना था कि डाक्टर का प्रोफेशन होता ही जनता की सेवा के लिए है और हमेशा अपने प्रोफेशन के साथ ईमानदार रहना चाहिए । जयंती नटराजन यही नाम था डाक्टर साहिबा का , बड़ी ही सौम्य महिला थी , मुझे उनका व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक लगता । लंबा कद , छरहरा शरीर ,सांवला रंग , लंबे बाल , तीखे नयन नक्श , बड़ी ही लुभावनी लगती थी । मै उधर से निकलते समय उनसे जरूर मिलती । उनसे मिलकर बड़ा अच्छा लगता , उनकी बातों से मै मंत्र मुग्ध हो जाती । वे केरला की रहने वाली थी , हिन्दी टूटी फूटी ही बोल पाती , मलयाली भाषा उनकी मातृ भाषा थी ।  इसलिए मलयालम और इंगलिश भाषाओं पर पूरा कमांड था । मै जब उनके पास बैठती तो वे हमेशा हिन्दी सीखने की इच्छा जाहिर करती ,और मै उन्हे हिन्दी सिखाती , हम दोनों कई घंटों हिन्दी का अभ्यास करते ।
बातों ही बातों मे मुझे पता चला कि उन्होने प्रेम विवाह किया है , उनके पति डाक्टर कंवल जीत भटिंडा के रहने वाले थे दोनों मुंबई के मेडिकल कालेज मे साथ ही साथ पढ़ते थे , पढ़ाई खत्म होने के बाद दोनों ने अपने अपने घर वालों की सहमति से विवाह कर लिया और जयंती नटराजन अपने पति के घर आ गई । पति के घर मे बड़ी बीजी ( उनकी दादी ) का शासन चलता था । उनको साँवली सलोनी जयंती पसंद नहीं आई , उन्होने पोते से कहा – पुत्तर ए की लै के आ गया , तू छड्ड इस नू ,मै त्वाड़े वास्ते सोंडी कुड़ी लै के आवंगी । सोंडी पंजाबी कुड़ी । बात आई गई हो गई ।
जयंती बड़ी लगन से सेवा करती , खासकर बड़ी बीजी की । बड़ी बीजी उसकी सेवा से बड़ी खुश हुई । सबसे कहती नहीं थकती कि – “बड़ी ही सुघड़ है हमारी जयंती ।“ उन्होने एक क्लीनिक खुलवा दिया कि डाक्टर बहू है घर मे कब तक बैठेगी । तब से वह क्लीनिक पर बैठने लगी थी और अपने इलाज से और मधुर व्यवहार से सबका दिल जीत लेती । तीन चार साल बीत गए पर उन्हे कोई संतान नहीं हुई , दबी जुबान से लोगों ने पूछना शुरू कर दिया – “ क्या बात है बहू कोई प्रिकाशन ले रही है क्या ?” अब घर के लोगों को भी लगा कि हाँ बात तो सही है । समय रहते हो जाना चाहिए । घर वालों ने कंवल जीत से कहा कि भाई अब तो खुश खबर मिलनी ही चाहिए । कंवल जीत हंस कर टाल देते । जयंती ने सोचा सबका मन रख ले , कंवलजीत से कहा कि हमे अब बच्चे के लिए प्लान कर लेना चाहिए । पर डाक्टर साहिबा की अपनी किस्मत अच्छी नहीं थी ,काफी प्रयास के बाद भी जब उन्हे संतान सुख नहीं मिला तो उन्होने बच्चा गोद लेना चाहा, थोड़े से विरोध के बाद सहमति मिल गई । डाक्टर साहिबा ने एक प्यारी सी बच्ची को गोद लिया । सास नन्द ने कहा लेना ही था तो एक बेटा लिया होता । डाक्टर साहिबा ने उन्हे समझाया बेटी को हम बेटे की तरह पाल सकते है और बेटी का अपना अलग ही सुख होता है कहने की बात है कि बेटा घर के नाम को आगे बढ़ता है लेकिन बिना बेटी कैसे संभव हो सकता है ।           
बेटा हो या बेटी दोनों का अपना सुख होता है । मुझे ये बच्ची बड़ी प्यारी लगी इसलिए मै ले आई । बेटी बड़ी ही मोहिल थी तो बडी बीजी ने उसका नाम मोहिनी रखा । मोहिनी बड़े थोड़े ही समय मे सबकी दुलारी बन गई । घर वालों का सारा समय मोहिनी के साथ कब बीत जाता पता ही न चलता ।
  जयंती का क्लीनिक जिस जगह पर था वहीं पीछे एक छोटा सा गाँव था । वहाँ सुविधाओं के नाम पर एक पुराना जर्जर हो चुका अस्पताल , एक विद्यालय जिसको किसी ने अपने रहने का स्थान बना लिया था , दो तीन कुएं जिनमे किसी मे पानी था किसी मे नहीं । काफी खस्ताहाल गाँव था कोई मुखिया नहीं और सभी मुखिया थे । जयंती जब उस गाँव मे गई , उसे वहाँ कि दयनीय स्थिति देख कष्ट हुआ । उसने मन मे ठान लिया कि इस गाँव के लिए कुछ करना है , पहले उसने वहाँ शिविर लगाया और मुफ्त सबका परीक्षण किया , जिसको जिस इलाज की आवश्यकता थी उसे वह प्रदान की । बच्चों की पढ़ाई लिखाई सुचारु रूप से चल सके इसके लिए विद्यालय ठीक करवाया , काफी दौड़ भाग कर वहाँ अस्पताल , स्कूल , हैंडपंप इत्यादि उपलब्ध कराये । डाक्टर साहिबा उस गाँव के लोगों के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं थी । जो डाक्टर साहिबा कहती वो उनके लिए ईश्वर का हुक्म होता , और क्यों न होता वही तो थी जिसने उनका जीवन ही बदल दिया था ।   

Tuesday 4 December 2012

विडिम्बना


आज रूपाली  का मन बहुत अधिक उदास था । वह ये सोच नहीं पा रही थी कि आखिर ये  दुनिया कैसी है , क्यों लोग एक दूसरे को चैन से जीने नहीं देते ? क्यों इतनी नफरत अपने दिलों मे पाल कर रखते है ? कहाँ से आई ये नफरत ? ईश्वर ने तो सिर्फ प्यार ही बनाया था , फिर ये नफरत , ईर्ष्या , द्वेष ये सब कहाँ से आया ?

बहुत अधिक विचलित होने पर उसने खुद को काम में उलझाने  की कोशिश की , परंतु नाकाम रही । टी वी देखने मे मन को लगाना चाहा उसकी ये कोशिश भी असफल रही । उसके मन का तनाव किसी भी तरह कम नहीं हो रहा था ।

उसको याद आने लगे बचपन के वो सुहाने दिन जब वह छोटी थी
 और मम्मी ,पापा ,भैया के साथ खुशी से ज़िंदगी काट रही थी । इकलौती बेटी होने कारण सबकी दुलारी थी । चाचा , दादी , भैया , मम्मी पापा सब उसकी हर ख्वाहिश को पूरा करते नहीं थकते । हालांकि मम्मी अक्सर कहती कि इतना लाड़ प्यार जो हम अपनी बेटी को दे रहे है क्या उसे ससुराल मे भी वैसा ही मिलेगा ? पापा झिड़क देते - छोड़ो भी आज के युग मे जब जमाना कहाँ से कहाँ तरक्की कर रहा है तुम वहीं अटकी पड़ी हो । हम अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर मजबूत बना देंगे कि लोग लाड प्यार तो दूर की बात है सर आँखों पर बैठा कर रखेंगे । परंतु माँ का मन यह मानने को तैयार नही था ।खैर जो भी होगा देखा जायेगा सच मे अभी से क्या चिंता करना , और उन विचारों को झटक दिया जो उन्हे परेशान कर रहे थे । उन्होने रूपाली को बेटे की तरह ही पढ़ाया । पढ़ने मे बहुत होशियार थी रूपाली  इसलिए वह आइ ए एस की तैयारी करने लगी । उसका सिलेक्शन हो गया और वह जिला अधिकारी बनकर बिलासपुर चली गई । बड़ी तन्मयता और लगन से वह अपना पदभार संभाल रही थी । इधर उसके माता पिता ने उसके लिए घर वर की तलाश शुरू कर दी ।
  इकलौती बेटी और जिलाधिकारी के पिता जहां भी जाते बेटी के बराबरी का जीवन साथी ढूंढते । कहीं कुछ मिलता कहीं कुछ कमी रह जाती, बात बनते बनते रह जाती । पिता रोज थक हर घर लौटते , रूपाली के भैया जो विदेश मे नौकरी कर रहे थे उन्हे एक लड़का मिला नाम था प्रशांत । उनके साथ ही मल्टीनेशनल कंपनी मे डी जी एम के पद पर कार्यरत था , उससे उन्होने अपनी बहन की बात चलाई । प्रशांत भी अपने घर मे इकलौता बेटा था ऊपर से विदेश मे नौकरी करता था । माँ बाप के लिए ब्लैंक चेक़ था ।  ये बात  रूपाली के भइया को पता नहीं थी । वह यही सोच रहे थे कि पढ़ा लिखा लड़का है खुले विचारों वाला है, कोई प्रश्न पूछ कर वह उसका अपमान नहीं करना चाहते थे । इधर प्रशांत के माता पिता भी सोच रहे थे कि रइस खानदान की इकलौती बेटी है तिस पर जिलाधिकारी । दोनों हाथ मे लड्डू ही लड्डू । इस भावना से अंजान रूपाली के घरवालों ने उसका ब्याह तय कर दिया । धीरे -धीरे सब तैयारियों के बीच वह दिन भी आ गया । जब रूपाली दुल्हन बनी । तमाम रीति रिवाजों के बीच शादी सम्पन्न हो गयी । रूपाली के घर वालों ने कोई कसर नहीं रखी , बारात खुशी खुशी विदा हो गई । सब कुछ ठीक तरह से निपट गया । ससुराल मे रुपाली ने भी समंजस्य बैठा लिया । 
 सभी ने सोचा सब कुछ ठीक थक चल रहा है , लेकिन यहीं गलत हो गए । प्रशांत सचमुच अच्छा लड़का था लेकिन उसके माँ बाप लालची थे । उनका मुंह खुला तो बंद होने का नाम ही नहीं लिया , पढ़ा लिखा समझदार बेटा भी उन्हे समझा पाने मे नाकाम रहा ।  बेटे व बहू की छुट्टियाँ भी खत्म हो गईं । सब अपने काम पर वापस चले गए । रूपाली अपनी छुट्टियों मे अपनी ससुराल आ जाती और सास ससुर को खुश रखने का भरसक प्रयास करती लेकिन वह नाकाम रहती । ऊपर से तानों का शोर और उसका जीना मुश्किल किए था । वह जल्दी से जल्दी वापस चली जाना चाहती । एक वर्ष के बाद प्रशांत फिर वापस इंडिया आया कि इस बार वह रूपाली को भी साथ ले जाएगा लेकिन उसकी दलीलों ने प्रशांत का मुंह ही बंद कर दिया । उसने अपने सास ससुर के साथ रह कर उनकी सेवा करना ही चुना । प्रशांत फिर वापस चला गया । इस बीच रूपाली का तबादला भी गाजीपुर शहर मे हुआ जहां उसकी ससुराल थी । उसने सोचा अब घर पर थोड़ा ज्यादा समय दे पाऊँगी , शायद सास ससुर को खुश रख पाऊँगी । और दूसरी बात ये भी थी कि वह अब माँ बनने वाली थी । लेकिन उसकी मुश्किलें अब ज्यादा बढ़ गईं थीं । कुछ समय पश्चात उसने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया , उसे  दो माह का प्रसूति अवकाश मिला , इस बीच सास ने उसकी देखभाल करना तो दूर की बात ,ताने सुना -सुना कर कान पका दिये ।  खुद तो खाली हाथ आ गई , बेटी और पैदा करके रख दी,  सारा जीवन कमाएगा मेरा बेटा ,  एक ये लड़की सब खाली कर जाएगी , बेटियाँ पैदा ही इसलिए होती है और न जाने क्या क्या । उस नन्ही परी की मधुर आवाज,  मोहक  मुख छवि कुछ भी उन्हे लुभा नहीं पाया । आज भी ये विडिंबना ही है कि बेटियाँ वह स्थान नहीं पा सकी हैं जिनकी वे हकदार है , चाहे वो कितनी भी पढ़ लिख जाएँ , कितने ही ऊंचे ओहदे पर पहुँच जाएँ  ...........
 
सोचते सोचते उसकी आँख कब लग गई उसे पता ही नहीं चला । जब आँख खुली तो प्रशांत को सामने पाया । उसने अब तक निर्णय ले लिया था कि अब वह अपने पति के साथ चली जाएगी बहुत सेवा कर ली पर वह अब अपने परिवार के लिए जिएगी ।

Sunday 2 December 2012

" प्रतिशोध "

  ठंडी हवाओं के साथ हल्की बूँदा बाँदी  भी हो रही थी । मौसम बड़ा खुशगवार हो गया था । यूनिवर्सिटी मे छात्रों और छात्राओं का जमघट जगह जगह लगा हुआ था । आज सभी के लिए बहुत बड़ा दिन था । आज परास्नातक के विद्यार्थियों का परीक्षा परिणाम आने वाला था । अपूर्वा बड़ी बेचैनी से अपने परिणाम का इन्तजार कर रही थी , क्योंकि इसके परिणाम से उसका आगे का भविष्य जुड़ा हुआ था । आगे वह एम  बी ए  करना चाहती थी क्योंकि यह उसके बड़े भाई प्रतीक की इच्छा थी । वह अपनी बहन को ऊंचाइयों पर देखना चाहता था । हालांकि उसके चार भाई थे , पर  प्रतीक सबसे बड़ा था वह इंडियन आर्मी मे कैप्टन था , और कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हो गया था । उसकी ही इच्छा पूरी करना अब अपूर्वा का जुनून बन गया था ।  बाकी तीनों भी अपूर्वा से बड़े ही थे और अपने बड़े भैया की तरह ही अपूर्वा पर जान छिड़कते थे । उन्होने भैया की इच्छा को पूरा करना अपना मकसद बना लिया था । उसकी आँख जिधर घूम जाती वो चीज उसकी हो जाती ।
  अपूर्वा बला की खूबसूरत थी , काली लंबी घनी केश राशि , हिरनी के जैसी चंचल आंखे , मोतियों के जैसे सफ़ेद दांत , गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ , दूधिया सफ़ेद रंग , छरहरी काया ,  किसी को भी दीवाना बनाने के लिए काफी थी । जब भी घर से बाहर निकलती तो मम्मी पापा डरते ही रहते , अपने लड़कों के गुस्से से भी वे भली भांति परिचित थे ।

  परीक्षा परिणाम जानने की उत्सुकता मे वह घर से पैदल ही यूनिवर्सिटी के लिए निकल पड़ी । किसी तरह यूनिवर्सिटी पहुँचने पर पता चला कि परिणाम घोषित हो चुका है , उसके पैरों से जैसे जान ही निकल गई । खींचते हुये कदमों से पहुंची । लिस्ट अपना नाम  सबसे ऊपर देख उछल पड़ी । खुशी के मारे उसके आँसू निकल पड़े । उसने अपने भैया का सपना साकार कर दिखाया था । वह तकरीबन दौड़ती हुई सी अपने घर चल पड़ी , वह जल्दी से घर पहुँच कर मम्मी पापा भैया सबको खुशखबर दे देना चाहती थी , लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था , उसके कालेज का एक  रईस बाप का बिगड़ा बेटा अमित जो उसी क्लास मे पढ़ता था उसकी जीत को बर्दाश्त नहीं कर पाया था , उसे अपूर्वा का पूरे कालेज मे प्रथम आना नागवार गुजरा । वो  उसके रास्ते मे आ गया और  उसकी ज़िंदगी पूरी तरह बरबाद कर गया । अपूर्वा विक्षिप्त सी अवस्था मे घर पहूँची , माँ उसको देखते ही समझ गयी कि कुछ जरूर हुआ है , अलग ले जाकर पूछा क्या हुआ ? उसने रोते रोते सारी कहानी सुना दी । माँ ने सिर पीट लिया ," जिसका डर था वही हुआ । "कितने भी रईस बाप का बेटा था वह! अपूर्वा के पिता भी नामी वकील थे , कानून के आगे कमजोर रहा और मुकदमे का नतीजा अपूर्वा के हक़ मे रहा ।  पिता ने उसे सजा करवा दी ।उसे आठ साल कठिन कारावास की सजा मिली । लेकिन ये अपूर्वा के जख्मों के लिए कम था । उसने ठानी कि उस गुंडे को को वह अपनी अदालत मे फैसला सुनाएगी , अभी उसका प्रतिशोध पूरा नहीं हुआ था । उसने अपनी पढाई आगे बढ़ाने का निश्चय किया । पिता ने और भाइयों ने उसका साथ दिया पर माँ थोड़ा खिलाफ रही । लेकिन बहुमत के आगे घुटने टेक दिये । अब उन्हे उसकी शादी की चिंता सताने लगी । समय पर शादी कर वे अपने कर्तव्य की पूर्ति करना चाहती थी । कौन करेगा इससे शादी का गम भी उन्हे भीतर ही भीतर साल रहा था । आखिर माँ जो थी , बेटी का कष्ट कैसे देख पाती । कई बार उससे कहा बेटा -" हमारे रहते शादी कर लेती तो अच्छा था । उसने बहाने बना कर टाल दिया । जिस दिन अमित जेल से रिहा हुआ उस दिन वह उससे मिलने पहुंची और उसे शादी के लिए मना लिया । अमित को तो मानो अंधे के हांथ बटेर लगी थी , तुरंत राजी हो गया । बस दोनों ने कोर्ट मे जाकर शादी कर ली । अपूर्वा के माता पिता और भाई बहुत नाराज हुए , उन्होने उसे आशीर्वाद भी नहीं  दिया । वह चल दी अमित के साथ उसके घर ।
  
अपूर्वा ने अपना बदला लेना आरंभ कर दिया , वह न तो अमित को अपने नजदीक आने देती न उसका कोई काम करती यहाँ तक कि घर वालों से झगड़ा ही करती रहती । धीरे धीरे अमित के घर वालों ने अमित से किनारा कर लिया और उसको अलग जाकर रहने की सलाह दी । अपूर्वा को मन मांगी मुराद मिल गई ।  दूसरे घर मे जाते ही उसने अमित को तंग करना शुरू कर दिया । वह अपूर्वा को धम्की देता -"तेरे लिए घर छोड़ कर आया हूँ , तुझे भी छोड़ कर चला जाऊंगा । " अपूर्वा कहती-" जा करके देख ले ,सारे शहर मे तेरी इतनी बदनामी हुई है कि कोई तुझे अपनी लड़की देना तो दूर देखने भी नहीं देगा ।" अमित ने प्रयास किया कि चलो दूसरी शादी कर ही लेते है । लेकिन हुआ वही जो अपूर्वा कह रही थी । अमित अब अपूर्वा को ही मनाने मे लगा रहता । पर नाकाम रहता । कोई काम न होने के के कारण उसकी मानसिक स्थिति बिगड़ने लगी , वह कभी अपूर्वा के पैर पकड़ता , कभी रोने लगता , कभी ज़ोर ज़ोर से हंसने लगता , कभी बाल पकड़ कर नोचता । ऐसी हरकते करते देख अपूर्वा को बड़ी शांति मिलती उसका प्रतिशोध पूरा हो गया था ।

Thursday 29 November 2012

सुमित्रा

अचानक  गेट की घंटी बजी , मैंने सोचा इस समय कौन हो सकता है ?  कौन इस चिलचिलाती धूप मे घूमने निकला है ? घंटी फिर बजी , मुझे उठकर जाना ही पड़ा ।   मुझे इस समय गेट के उस पार जो भी था उस पर बड़ा गुस्सा आ रहा था । एक तो जेठ की तपती दोपहर उस पर कूलर के सामने उठना , खल रहा था । गर्मियों मे अक्सर  हमारे शहर मे बिजली का संकट बना ही रहता है , बस बिजली तुरंत आयी ही थी कि मैंने सोचा दुबारा चली जाए इससे अच्छा है थोड़ी देर फायदा ही उठा लिया जाय । खैर जो भी था अब झेलना तो था ही ।गेट पर पहुच कर मैंने थोड़ा कडक कर पूछा - कौन है ? बाहर से एक  अपरिचित महिला की आवाज आई - "हम है गेट खोलो । " मैंने फिर सवाल किया - "क्यों गेट किसलिए खोले , कौन हो तुम कहाँ से आई हो ?' वह बोली मुसीबत की मारी हैं हम काम ढ़ूढ़ने निकली हैं , बड़ी मेहरबानी होगी गेट खोल दीजिये । मैंने सोचा पता नहीं कौन है और आज कल जमाना भी खराब है जाने किस भेस मे आ जाए शैतान । पहले का जमाना और था जब ये होता था  कि  न जाने किस भेस मे आ जाये भगवान !

             काफी देर सोचा फिर धीरे से गेट थोड़ा खोला देखा एक दुबली पतली कृशकाय महिला खड़ी थी । मुख छवि काफी आकर्षक थी पर खुद ही डरी हुई सी लग रही थी । मैंने सोचा चलो देख लेते है और गेट खोल कर उसे अंदर बुला लिया । और वही पोर्च मे कुर्सी लेकर बैठ गई । क्योंकि अभी भी मन के किसी कोने मे  डर पाँव जमाये हुए था । लेकिन वह आई और वही गेट के के बगल मे ही बैठ गई । मैंने पूछा -"ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि तुम्हें इस भरी दुपहरी मे निकलना पड़ा ।"
वह कुछ सकुचती सी बोली - " थोड़ी ही दूरी पर हमार घर है । और घर मा मनई , लरिका , बीटेवा ,सबै है  ( पति , लड़के , बेटियाँ ) । पर का बतावन अइस समस्या आन परी है कि आपन घर दुवार छाड़ि कै काम खातिर निखरि आई हन( थोड़ी दूरी पर मेरा घर है घर मे पति ,बच्चे सब है पर क्या बताएं ऐसी समस्या आ पड़ी है कि अपना घर द्वार छोड़ कर कम करने निकल पड़ी हूँ )। " और इस तरह उसने अपनी दुःख कथा सुना डाली । मुझे लगा सच मे मुसीबत कि मारी है काम पर रख ही लेती हूँ वैसे भी कुछ दिनों बाद देवर की शादी है , मुझे मदद मिल जाएगी और इसकी मदद हो जाएगी । कुछ पैसे ही मिल जाएंगे । मैंने उससे नाम पूछा तो उसने अपना नाम सुमित्रा बताया ।
       मैंने कहा ठीक है घर मेँ मै भी  बात कर लूँ । तुम कल से आना ।  वह हाँ कह कर चली गई । इसके बाद वह काम पर आने लगी । उसका और हमारा दोनों का काम चलने लगा । उसके बच्चे फिर से स्कूल जाने लगे । उसके घर मे फिर से चूल्हा  जलने लगा । पर उसकी किस्मत कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी , उसका पति शराबी था सारी कमाई छीन कर उड़ा देता , यही लत उसके बड़े बेटे को भी लग गई । अब ये बहुत ज्यादा होने लगा था । घर मे दोनों पीकर तहलका मचाते और आए दिन सुमित्रा को पीटते । सुमित्रा के लिए सहन करना बहुत मुश्किल हो गया था । वह अक्सर अपनी कथा मुझे सुनाती  । मैंने उसे अपनी लड़ाई खुद ही लड़ने सलाह दी। उसने मन ही मन एक निर्णय लिया । उसने अपने सभी बच्चों को मायके छोड़ आई । अब वह घर मे अकेली थी । उसने ठान लिया था कि अब आर पार की लड़ाई लड्नी है । एक कमरे मे पति को बंद कर दिया और दूसरे  कमरे मे बेटे को बंद किया । बाहर से ताला लगा कर काम पर निकल जाती न खुद  खाती न पति और लड़के को देती । सिर्फ पानी अंदर रख देती ताकि पानी की कमी न रहे , शौच इत्यादि के लिए वह एक एक कर दोनों बाहर निकालती और वापस बंद कर देती और जब वे गाली गलौज करते उन्हे पानी भी न देती । भूख प्यास ने दोनों का दिमाग ठीक कर दिया । वे बार बार माफी मांगते । परंतु सुमित्रा अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुई , पूरा महिना ऐसे ही व्यतीत हो गया अब तक दोनों बुरी तरह टूट चुके थे । धीरे धीरे वह उन दोनों को बाहर निकालने लगी , पहले एक घंटा फिर दो इसी तरह कई दिनो के अथक प्रयास से उसकी जीत हुई । उसका पति और पुत्र दोनों ही सही रह पर आ चुके थे । वह मायके जाकर  अपने सभी बच्चों को वापस ले आई , पति को भी काम पर रखवा दिया । और बेटा भी आठवीं क्लास मे अच्छे नंबरों से पास हुआ वह अपनी लड़ाई जीत गई थी ।